________________
पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 298 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
"प्रिय-वचनों में क्या दरिद्रता" अरतिकरं भीतिकरं खेदकरं वैरशोककलहकरम्
यदपरमपि तापकरं परस्य तत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम् 98 अन्वयार्थ : यत् परस्य = जो (वचन) दूसरे (जीवों) को अरतिकरं = अप्रीति करनेवाला भीतिकरं खेदकर = भयकारक खेदकारकं वैरशोककलहकरम् = वैर, शोक तथा कलहकारक हों अपरमपि = अन्य जो भी तापकरं = आतापों को करनेवाला हों तत् सर्व अप्रियं = वह सर्व ही अप्रियं ज्ञेयम् = जानना चाहिए
सर्वस्मिन्नप्यस्मिन्प्रमत्तयोगैकहेतुकथनं यतं अनृतवचनेऽपि तस्मान्नियतं हिंसा समवतरतिं 99
अन्वयार्थ : यत् अस्मिन् = चूँकि इनं सर्वस्मिन्नप = सभी वचनों में प्रमत्तयोगैकहेतु कथन = प्रमाद सहित योग ही एक हेतु कहने में आया हैं तस्मात् अनृतवचने = इसलिए असत्य वचन में अपि हिंसा नियतं = भी हिंसा निश्चित रूप से समवतरति = आती हैं
हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम्
हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् 100 अन्वयार्थ : सकलवितथवचनानाम् = समस्त झूठे वचनों का प्रमत्तयोगे = प्रमाद सहित योगं हेतौ = हेतुं निर्दिष्टे सति = निर्दिष्ट करने में आया होने से हेयानुष्ठानादेः = हेय-उपादेय आदि अनुष्ठानों का अनुवदनं असत्यं न भवति = कहना झूठ नहीं हैं
मनीषियो! भगवान तीर्थेश की पावन पीयूष वाणी जन-जन की कल्याणी हैं आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने सूत्र दिया कि सत्य को सत्य समझों सत्य जो अवक्तव्य है और अपने आप में अनुपम हैं
Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
Copy and All rights reserved by www.sumasokiainwater@yahoo.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com