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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 302 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002
'मत हरो किसी का धन'
भोगोपभोगसाधनमात्रं सावद्यमक्षमाः मोक्तुम्ं
ये तेऽपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव मुञ्चन्तुं 101
अन्वयार्थ :
ये = जो जीवं भोगोपभोगसाधनमात्रं
भोगोपभोग के साधन मात्र सावद्यम् = सावद्यवचनं मोक्तुम् = छोड़ने कों
अक्षमाः = असमर्थ हैं तेअपि शेषम् = वे भी शेषं समस्तमपि =समस्त हीं अनृतं = असत्य भाषण को नित्यमेव मुञ्चन्तु = निरन्तर ही छोड़ों
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अवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत्ं
तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् 102
अन्वयार्थ :
यत् = जों प्रमत्तयोगात् = प्रमाद ( कषाय ) के योग सें अवितीर्णस्य = बिना दियें परिग्रहस्य (सुवर्ण, वस्त्रादि ) परिग्रह का ग्रहणं = ग्रहण करना हैं तत् स्तेयं प्रत्येयं = उसे चोरी जानना चाहियें च सा एव = और वहीं वधस्य हेतुत्वात् = वध के हेतु सें हिंसा = हिंसा हैं
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भो मनीषियो! आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने सहज सूत्र दिया है कि यदि दृष्टि सत्य है तो सृष्टि सत्य हैं यदि दृष्टि सत्य नहीं है, तो सत्य भी सत्य नहीं हैं असत्य कहने से सत्य कभी असत्य होता भी नहीं हैं क्योंकि जो सत्य है, वह सत्य ही होता हैं सैंतालीस शक्तियों में भगवान् अमृतचंद्र स्वामी ने 'आत्मख्याति टीका' में छठवीं 'वीर्य शक्ति' का कथन किया हैं अपनी वीर्य-शक्ति को नहीं समझने के कारण ही इन पुद्गलों में आप लिपटे बैठो हों तेरा वीर्य अनन्त हैं क्षयोपशम तेरा स्वभाव नहीं है, क्षायिक तेरा वीर्य है और क्षायिक - वीर्य तभी सामने खड़ा होता है जब तेरे सामने क्षायिक ज्ञान होता हैं अनंतज्ञान को वही स्वीकार कर सकता है जिसके पास अनंतबल होता हैं
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