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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 319 of 583 ISBN # 81-7628-131-
3 v -2010:002 "पाचवाँ-पाप परिग्रह" या मूर्छा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः मोहोदयादुदीर्णो मूर्छा तु ममत्वपरिणामः 111
अन्वयार्थ :इयं = यहं या मूर्छानाम = जो मूर्छा हैं एषःपरिग्रहो हि = इसको ही परिग्रह निश्चय करके विज्ञातव्यः= जानना चाहिये तु मोहोदयात् = और मोह के उदय से उदीर्णः = उत्पन्न हुआं ममत्व परिणामः = ममत्वरूप परिणाम ही मूर्छा = मूर्छा हैं
मूर्छालक्षणकरणात् सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्यं सग्रन्थो मूर्छावान् विनापि किल शेषसंगेभ्य: 112
अन्वयार्थ :परिग्रहत्वस्य = परिग्रहपने कां मूर्छालक्षणकरणात् = मूर्छा लक्षण करने से व्याप्तिः = व्याप्तिं सुघटा = भले प्रकार घटित होती हैं (क्योंकि ) शेष संगेभ्यः = अन्य सम्पूर्ण परिग्रह के विना अपि = विना भी मूर्छावान् = मूर्छा करनेवाला पुरुषं किल = निश्चयकरं सग्रन्थः = बाह्य परिग्रहसंयुक्त हैं ।
भो मनीषियो! जब यह जीव निजब्रह्म में लीन होता है, तो पर-द्रव्य से दृष्टि सहज हट जाती हैं निजब्रह्म में लवलीन हुई आत्मा वाह्य ब्रह्मांड की ओर नहीं निहारती जो वाह्य ब्रह्मांड में विचरण कर रहा है, वह निजब्रह्म में त्रैकालिक विराजमान नहीं हो सकतां अतः आत्मब्रह्म में गया जीव वाह्य में विचरण नहीं कर सकता और वाह्य में विचरण करनेवाला जीव कभी निजब्रह्म में लीन नहीं हो सकता, क्योंकि भोगसत्ता और योगसत्ता युगपत् नहीं रहतीं अहो! वैराग्य में राग और राग में वैराग्य, ये दोनों धाराएँ बहुत विपरीत हैं अनुभव करके देखना कि वही ज्ञान, ज्ञान है, वही भेदविज्ञान है, जिससे निजात्मा का कल्याण हों भेदविज्ञान यही कहता है कि निजद्रव्य को पर द्रव्य से भिन्न स्वीकार करके चलना ही भेद-विज्ञान हैं नाना सत्ताओं में समाविष्ट होने पर भी निज सत्ता का ध्यान नहीं खोना, अपनी सत्ता को नहीं भूलना, इसका नाम भेदविज्ञान हैं ऐसे ही विजातियों के बीच में, एक नहीं, दो नहीं, एक सौ अड़तालीस विजातियों के बीच में मेरी जाति
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