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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 264 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
जिसका चित्त विषयों में आसक्त है, वह जीव मनुष्यता का ध्यान नहीं रखतां जो काम के बाण से बिंधित हुआ है, भगवती माँ जिनवाणी कहती है कि वह तिथंच है, उसके वचनों में भी सत्यता नहीं है, उसका देवत्वपना भी नष्ट हो जाता है, पुण्य भी नहीं दिखता, वह पिता को भी दुश्मन देखता हैं
भो ज्ञानी! व्यसनी, कामी, भोगी राजा के तुम मित्र बनकर मत जीनां भीख माँगकर चाण्डाल के पत्तल का भोजन कर लेना, पर चाण्डाल हृदयी के हाथ का नीर मत पी लेनां उस कामी ने उसके शील को भंग कर दियां जब भाई मरुभूति वापस आया, तो कमठ कहने लगा-भाई के नाते आप मुझे क्षमा कर दों यह जानकर सम्राट अरविंद कहता है कि नीति कहती है कि यदि सम्राट की भुजा भी गलत काम करती है तो उस भुजा को निकाल देना चाहिये जो व्यक्ति सर्प के द्वारा डसे जाने पर, एक अंगुली के अभावजन्य दुःख से दुःखित हो, अंगुली को नहीं काटता है, वह अपने पूरे जीवन को नष्ट कर लेता हैं यदि आज मैंने कमठ को दंड नहीं दिया, तो कल इसके उपद्रव और बढ़ जाएँगें अतः उसको खर ( गधा ) पर विराजमान कर, काला मुख करके बाहर निकाल दियां
अहो!संसार में अपमान से बड़ा कोई दंड नहीं है, क्योंकि जब तक श्वाँस रहती हैं, तब तक अपमान चलता हैं उधर कमठ पर्वत की चोटी पर पाषाण की शिला को ले कर खड़ा है और साधु का रूप बनाकर तपस्या करने लगां भो मनीषियो! मरुभूति ने महाराजा अरविंद से कहा-स्वामी! मैं अपने भाई के दर्शन करने जाना चाहता हूँ राजा बोले-किसके दर्शन? जिस दुष्ट ने तेरी पत्नी के शील को भंग किया है उस व्यभिचारी के दर्शन? मरुभूति बोले-स्वामी! अब वह साधु हैं मरुभूति नहीं माना और जैसे ही राग-वश वह जाकर सिर झुकाता है, उसे देखकर कमठ सोचता है-अहो! इसी के कारण मुझे यह भेष बनाना पड़ां अतः जो चट्टान हाथ में तपस्या के लिए थी, वही भाई के ऊपर पटक दी जिससे मरुभूति मरकर हाथी की पर्याय को प्राप्त हुआं अहो! उसे करुणा नहीं आयी, बनने वाले भगवान के ऊपर शिला पटक दी
भो ज्ञानी! इस पर्याय में कमठ का जीव ऐसा पाप कर बैठा कि कुर्कुट जाति का सर्प बनां उधर पारसनाथ बनानेवाला हाथी जंगल में विचरण कर रहा था महाराजा अरविंद निग्रंथ योगी होकर जंगल में ही राज गयें मनीषियो! रात्रि में मुनि मौन रखते हैं आचार्य शुभचंद स्वामी "ज्ञानार्णव' ग्रंथ में लिखते हैं
धर्मनाशे क्रियाध्वंसे, सुसिद्धांतार्थविप्लवें अपृष्टैरपि वक्तव्यं, तत्वस्वरूप प्रकाशनें 15
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