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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 265 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
हे निग्रंथ! आपको मौन रखना चाहिए, लेकिन जहाँ पर धर्म का ध्वंस हो रहा हो, क्रियाओं का विप्लव हो रहा हो, धर्म के नाम से हिंसा का तांडव चल रहा हो और मनमाने सिद्धांत की बातें चल रही हों, वहाँ पर तुमसे कोई न भी पूछे, फिर भी तुमको बोलना चाहिए
मनीषियो! वह हाथी अनेक जीवों को कुचल रहा थां मुनिश्री ने कहा-हे भावी भगवंत! राग की महिमा में तथा भाई के मोह में तुमने वीतरागता को नहीं समझां आपको भी मैंने समझाया था, पर तुम नहीं माने और उस दुष्ट कमठ के पास पहुँचकर आर्त्त-ध्यान से प्राणों का विसर्जन किया, सो आज तुम हाथी बने हों यह सुनकर हाथी के नैनों से पश्चाताप का नीर बहने लगा और सँड उठाकर मस्तक चरणों में टेककर विनती करने लगा-हे धरती के देवता! आप अब मेरी पर्याय का सुधार करों मुनिराज बोले-हे जीव! अब तो तूने पर्याय को प्राप्त कर ही लिया है, लेकिन तिर्यंच पर्याय में भी पंचमगुणस्थान होता हैं अतः तुम देशव्रत का पालन करों हाथी ने प्रतिमा लेकर बारह व्रत अंगीकार कर लिएं वह सूखे पत्ते खाता था, सो सचित्त-त्याग हो गयां जमीन को फूंक-फूंक कर चलता था; करवट लेता था तो देख लेता था, जब पानी पीने जाता था तो देख लेता था कि दूसरे जानवर पानी में प्रवेश कर चुके कि नहीं अथवा सूर्य की किरणें पड़ चुकी हैं 'मूलाचार' जी में कहा है-जहाँ सूर्य की किरणें पड़ रही हों, ऐसे नदी-तालाब का पानी ले सकते हैं, परंतु सहजता में नहीं, अशक्य अवस्था में क्योंकि यह राजमार्ग नहीं है, अपवाद मार्ग हैं अष्टमी-चतुर्दशी का प्रोषध कभी कर लेता थां एक बार जैसे ही वह गजराज पाड़ना के लिए पानी पीने गया, पर दुष्ट ने दुष्टता नहीं छोड़ी, कुर्कुट जाति का वह सर्प सिर पर बैठ गया और डस लियां सल्लेखनासहित समाधिमरण कर श्रावक गजराज बारहवें स्वर्ग में देव हुआ और सर्प-नरक पर्याय को प्राप्त हुआं
भो ज्ञानी! अब देखना संसार की दशां अब वह देव स्वर्ग से च्युत होकर चक्रवर्तीपद की विभूति प्राप्त कर वज्रदंत चक्रवर्ती बना और वह कमठ का जीव भी नरक से उठकर तिर्यंच योनि में सिंह बनां उन वज्रदंत चक्रवर्ती ने छ: मास के पोते को राजतिलक कर बेटों के साथ जैनश्वरी दीक्षा धारण कर लीं मुमुक्षु आत्माओ! जो सारी विभति को सडे तिनके के समान त्यागकर चला गया, उसे सिंह ने आकर पुनः खा लिया, अतः वे पुनः स्वर्ग में देव हुए और वह सिंह पुनः नरक में चला गयां वहाँ से च्युत होकर अंत में वह गजराज मुनि महाराज ने आनंद की पर्याय में तीर्थंकर-प्रकृति का बंध किया और कमठ का जीव अजगर हुआं जब आनंद मुनिराज साधना में लीन थे, तब अजगर ने उन्हें सीधा आकरके उठाकर मुख में रख लियां अहो ज्ञानियो! देखो उन्हें सांप निगल रहा है और वे कषायों को निगल रहे हैं यही तो था तत्त्वसार, यही था समयसार, यही था प्रवचनसारं ध्यान रखना, उस समय वे योगी सोच रहे थे कि जिसे निगल रहा है वह देह है, देही (मैं) नहीं हैं मैं तो एक शास्वत हूँ मुझे कौन निगल सकता है, कौन मार सकता है? मैं तो चिन्मय चैतन्य ही रहूँगां
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