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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 213 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
धर्म ही मंगल हैं उत्कृष्ट है, जो अहिंसा, तप, संयम से पवित्र है, ऐसे धर्म को देव भी नमस्कार करते हैं हे मन ! ऐसे धर्म को तू मानं भो ज्ञानी ! जिनेन्द्र की वाणी विरोध से रहित होती हैं ध्यान रखना, कठोरता में कष्ट होता है, लेकिन जब कठोरता समझ में आ जाती है तब कठोरता के प्रति श्रद्धा अगाध हो जाती हैं जो अध्यापक आपको ज्यादा कठोरता से पढ़ाते थे, उनका विषय आज भी आपको याद है, अतः पीठ-पीछे यह कहते हैं कि हमारे गुरुजी बहुत अच्छा पढ़ाते थे आचार्य श्री अपनी घटना सुना रहे थे कि एक बार वह जब कटनी विद्यालय में पढ़ते थे, धन्यकुमार नामक एक ईमानदार एवं विद्वान् पंडितजी थे वे कहते थे, बेटा! मैं वेतन लेता हूँ और आप माता-पिता का खाते हों इसलिये दोनों ईमानदारी से चलों उनके अतिअनुशासन में बच्चे घबरा गये, तो उनका वहाँ से स्थानांतरण कराने के लिये आवेदन लगा दियां जिस दिन बिदाई थी, उस दिन वही छात्र आँखों में आँसू भरकर रो रहे थें अनुशासन कठोर तो होता है, परन्तु अकल्याणकारी नहीं होता है और शिथिलाचार मृदु लगता है, अकल्याणकारी होता हैं जिसको अपने जीवन का घात करना हो तो शिथिलाचार का पोषण कर लों अपने बच्चे बिगड़वाना हो, उन्हें नाना-नानी के घर में भेज दो, क्योंकि उनके यहाँ वे देवता कहलाने लगते हैं, वे उन्हें डाँटते-मारते नहीं ठीक है, मेहमानी के लिये भेज दो, पर उनके भरोसे मत छोड़ देनां आचार्य-विहीन-शिष्य और पिता-विहीन-पुत्र की जो हालत होती है, मनीषियों! अहिंसा से रहित धर्म की भी वही हालत होती हैं
भो ज्ञानी! जब जीवन में समीचीन आचार होगा, तभी सम्यक्त्वाचरण होगा और जब सम्यक्त्वाचरण होगा, तभी तो स्वरूपाचरण होगां अब देखो, हमारे जीवन में सम्यक्त्वाचरण की गंध ही नहीं है तो स्वरूपाचरण की दृष्टि कैसे हो सकती है ? यह तो छल है निज के साथं मनीषियो! आचार्य भगवान कह रहे हैं कि सबसे पहले जो अष्ट-मूलगुणों का पालन करता है, वह जैन होता हैं जिसके जीवन में अष्ट-मूलगुण नहीं है, वह जाति का जैन तो है, पर धर्म का जैन नहीं हैं इतनी निडरता से कहनेवाले आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ही हैं कि जब तक तुम्हारे अन्दर अष्ट-मूलगुण का पालन नहीं है तो तुम्हें प्रवचन सुनने का भी अधिकार नहीं हैं जो जीव रात्रि भोजन करता हो, दूध, फल, मेवा आदि चखता हो, उनसे अमृतचंद्र स्वामी जी कह रहे हैं कि जो रात्रि में ग्रास खाता है, वह माँस के पिण्ड को खाता हैं अहो! कभी तो सोचा करो कि हम मरण के समय भी त्याग नहीं कर पा रहे हैं जिसने स्वयं अष्ट-मूलगुण धारण नहीं किये, वह जिन का उपदेश क्या करेगा? इसलिये ध्यान रखना, गणधर की गद्दी पर बैठो, तो कुछ तो त्याग करके बैठनां
भो चेतन! माँस, मधु, मदिरा की तरह जितने द्रव्य चलित हो चुके हैं अर्थात् जितने चलित रस हैं और जितने औषधियों के आसव आ रहे हैं, एलकोहल उसमें मिला हुआ हैं भो ज्ञानी! बरसों-बरसों की जो बोतलें रखी रहती हैं कोका-कोला की और न जाने कब की भरी पड़ी हुई हैं, पानी उसमें है कि नहीं? कब छना है? क्या श्रावक-धर्म का पालक ऐसी वस्तु को छू सकता है? जिनसेन स्वामी ने महापुराण में लिखा कि आठ वर्ष
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