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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 224 of 583 ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
" मत करो अधिक हिंसा - लालसा के पीछे पुण्य की "
आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु माँसपेशीषु सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् 67
अन्वयार्थ :
आमासु बिना पकी अर्थात् कच्चीं पक्वासु अपि = पकी हुई भीं विपच्यमानासु अपि
पकती हुई भीं
माँसपेशीषु = माँस की डालियों में तज्जातीनां = उसी जाति के निगोतानाम् = सम्मूर्च्छन जीवों कीं सातत्येन उत्पादः = निरंतर ही उत्पत्ति होती रहती है
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आमां वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीं
स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् 68
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अन्वयार्थ :
यः = जो जीवं आमां वा = कच्ची अथवा पक्वां = अग्नि में पकी हुई पिशितपेशीम् माँस की डली कों खादति = भक्षण करता हैं वा स्पृशति = अथवा छूता हैं सः = वह पुरुष सततनिचितं = निरंतर एकत्रित किये हुयें बहुजीवकोटीनाम् = अनेक जाति के जीवसमूह के पिण्डं निहन्ति = पिण्ड को नष्ट कर देता हैं
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भो मनीषियो! आचार्य भगवन् अमृतचंद्र स्वामी ने 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' में पुरुष की सिद्धि का कथन करते हुये संकेत दिया है कि, हे पुरुष ! पुरु होकर तुझे लघुकृत्य करना उचित नहीं आचार्य भगवान् नेमिचंद्रस्वामी ने 'जीवकाण्ड' में पुरुष का अर्थ किया है
पुरुगुणभोगेसेदे करेदि, लोयम्मि पुरुगुणं कम्मं
पुरु उत्तमो य जह्म, त से वण्णिओ पुरिसो ं 274
जिसके मात्र दो हाथ, दो पैर हों, सिर हो, इन्द्रियाँ हों तथा इन्द्रियाँ के भोग हों, उसका नाम पुरुष नहीं पुरु याने श्रेष्ठ, उत्तमं हम पुरु के वंश के हैं और पुरु यानि भगवान् आदिनाथ स्वामी, जो कि
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