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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 234 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
होता हैं इसी प्रकार जैसी कैसेट है, जैसी आपने फिल्म बनाई है, वैसा उसमें आयेगां ध्यान रखना, कर्म-उदय को दोष देना सबसे बड़ा दोष है, क्योंकि कर्म के विपाक को दोष देना नवीन कर्म-बंध का कारण हैं कर्म-विपाक याने कर्म का फलं अरे! न्ल में जो पानी आ रहा है वह नल का दोष नहीं हैं टंकी में जैसा पानी भरा है, उस भरनेवाले को दोष दों टोंटी का काम तो निकालना है, पानी भरना नहीं अतः नल की टोंटी पर हथोड़े मत पटकों नल में पानी खारा नहीं है, भूमि में पानी खारा हैं उदय में पानी खारा नहीं होता तो परिणति खारी क्यों होती? इसी कारण कर्म का फल भी खारा हैं
भो ज्ञानी! कर्म-बंध की प्रक्रिया को देखना आज बध्यमान काल में विचारने की आवश्यकता है, पर बध्यमान निर्मल तभी होता है, जब भुज्यमान निर्मल होता हैं भुज्यमान में नहीं सम्हल पाये, तो बध्य अशुभ होगा-ही-होगां जिस आयु को आप भोग रहे हो, यह भुज्यमान-आयु कहलाती हैं उस आयु के काल में आप जो बंध कर रहे हा, यह बध्यमान कहलायेगी बध्यमान में तुम क्या करोगे, भुज्यमान में संभल जाओं भुज्यमान को आप मिटा नहीं सकते जबकि बध्यमान का उत्कर्ष भी कर सकते हो और अपकर्ष भी कर सकते हो और संक्रमण भी हो सकता है, लेकिन निधत्ति व निकांचित का कुछ नहीं कर सकते, वह तुमको भोगना ही पड़ेगां निधत्ति व निकांचित आठों कर्मों में होता हैं जैसे कि संत निकल रहे, उनकी भक्ति-आराधना करके तुम अपने पुण्य को संचित कर लों इसी प्रकार कर्म आ रहे हैं, जा रहे हैं, तुम अपनी परिणति सुधार लों लेकिन तुम कहो कि हमारे पास शुभ-कर्म आ जाएँ तो वह आनेवाले नहीं तुम्हारी अवस्था जैसी होगी, वैसा ही होगां इसलिए कर्म किसी के नहीं हैं जिसने शुभ परिणति की, उसे शुभरूप फल देते हैं इसके विपरित अशुभ-परिणति में अशुभ फल देते हैं आँखों से कर्म दिखते नहीं हैं वह कर्म-विपाक साता या असाता के रूप में आता हैं वेदनीय-कर्म का काम तो अनुभव कराना है, कर्म को लाना नहीं हैं वेदनीय तो कर्म वेदन कराता हैं अन्तराय-कर्म का क्षयोपशम लाभ- आन्तराय कर्म को लाता है, मोहनीय कर्म उस पर कब्जा करा देता है
और वेदनीय कर्म भोग कराता हैं भो ज्ञानी! निघत्ति व निकांचित कुछ नहीं करता, वह तो यह कहता है कि तुमको उतना भोगना पड़ेगा जितना तुमने ग्रहण किया है, जैसा तुमने स्वीकार किया हैं वह तो इस प्रकार कहना चाहिए कि राजा ने पहरेदारों को आदेशित कर दिया कि जाओ, उस व्यक्ति को फाँसी पर चढ़ा दों उनका काम फाँसी पर चढ़ाना है, लेकिन न वह कम कर सकता है, न वह बढ़ा सकता हैं फांसी के फंदे खींचना हीन काम है, जो बुद्धिशाली के नहीं, प्रज्ञाहीनों के होते हैं ऐसे ही निघत्ति व निकांचित कह रहा है कि मेरे पास विवेक नाम की वस्तु नहीं हैं मुझे आदेशित किया गया है, हम तो इतने समय तक तुमको रोके रखेंगें और ऐसे ही क्षेत्र में तुमने अशुभ कृत्य कर डालां
भो ज्ञानी! अन्य भेषों में कोई पाप किया जाये, उसके परिहार के लिये जिनभेष होता है; लेकिन जिनभेष में ही तुमने पाप कर डाला तो ध्यान रखना, वहाँ भी निधत्ति व निकाचित होगा
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