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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 252 of 583 ISBN # 81-7628-131-
3 v-2010:002 'धर्मदेवता के निमित्त की गई हिंसा भी हिंसा ही है।
सूक्ष्मो भगवद्धर्मो धर्मार्थ हिंसने न दोषोऽस्तिं इति धर्म मुग्ध हृदयैर्न जातु भूत्वा शरीरिणो हिंस्या:79
अन्वयार्थ:भगवद्धर्मः = परमेश्वर-कथित अर्थात् भगवान् का कहा हुआ धर्म सूक्ष्मः = बहुत बारीक हैं धर्मार्थ हिंसने = धर्म के निमित्त हिंसा करने में दोषः नास्ति = दोष नहीं हैं इति धर्ममुग्ध हृदयैः = ऐसे धर्म में मूढ़ अर्थात् भ्रमरूप हुए हृदय सहितं भूत्वा = होकरं जातु = कदाचित् शरीरिणः न हिंस्याः = शरीरधारी जीव नहीं मारने चाहियें
धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिह सर्वम् इति दुर्विवेककलितां धिषणां न प्राप्त देहिनो हिंस्या80
अन्वयार्थ : हि धर्मः = निश्चय करके धर्म देवताभ्यः प्रभवति = देवताओं से उत्पन्न होता हैं इह = इस लोक में ताभ्यः सर्वम् प्रदेयम् = उनके लिये सब ही दे देना योग्य हैं इतिदुर्विवेककलितां = इस प्रकार अविवेक से ग्रसितं धिषणां = बुद्धि कों प्रायः = पाकर के देहिनः न हिंस्याः = शरीरधारी जीव नहीं मारना चाहिए
मनीषियो! आचार्य भगवान् अमृतचंद्र स्वामी ने अध्यात्म व सिद्धान्त की गहराइयों को स्वयं लख-लखकर लिखा हैं भो ज्ञानी! अपनी कृति को अमरत्व देना चाहते हो तो पहले लिखो नहीं, लखों अहो! धर्म की पुस्तक लिखना बहुत सरल है, लेकिन धर्म की पुस्तक का जीवन जीना बहुत महान हैं हमारे आचार्यों ने पहले धर्म की पुस्तक को बनकर देखा है, फिर लिखा हैं इसलिए आचार्य कुंदकुंद देव ने 'समयसार' जी की पाँचवी गाथा में स्पष्ट लिखा है कि मैं जो कथन कर रहा हूँ, वह मैंने स्वानुभव किया है, आत्मा की शान्ति का उपाय एकत्व-विभक्त-स्वभाव ही हैं तं एयत्तविहत्तं दाएह, अप्पणो सविहवेण5
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