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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 68 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
निकलता है, और अपन उससे मिलते हैं तो रोंगटे खड़े होने लगते हैं इसका तात्पर्य है कि उन वर्गणाओं ने, उन तरंगों ने आपको प्रभावित कर लिया हैं
जैसे एण्टीना लगाकर आप पिक्चर खींच रहे हो और बाहर भेज रहे हो, ऐसा ही आगम कहता हैं आपने किसी की प्रशंसा की तो वह व्यक्ति समझ जायेगा कि यह हमारे को ही केंद्र बना रहा हैं इतने सारे लोग बैठे हैं, उन्हें प्रसन्नता नहीं आ रही, क्योंकि हमारा एण्टीना उनकी ओर नहीं हैं जिस जीव के अंदर कषाय भाव है, उस जीव को कार्माण-वर्गणा चिपकती है और जिसको कषाय-भाव नहीं होते, उसको बंध होगा ही नहीं, क्योंकि इसी लोक में तीर्थकर/केवली रहते हैं,इसी लोक में ऋषि /मुनिराज जी रहते हैं और यहीं रोगी-भोगी भी होते हैं,परंतु वे बंध नहीं रहे हैं और ये बंध रहे है, जबकि वर्गणायें सभी के पास हैं तेईस वर्गणाओं में से पाँच काम कर रही हैं
भो ज्ञानी! आगम में देवों के चार भेद हैं: भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्कि और कल्पवासी इनमें व्यंतर के भेद हैं: भूत, पिशाचं उनके वैक्रियक शरीर हैं भूत किसी को लग गया, मतलब व्यंतर-देव ने किसी को परेशान किया हैं यहाँ तक कि हाथ-पैर हिलाना प्रारंभ हो गयें जब कोई मंत्रवादी कोई मंत्र फॅकता है, तो वह प्रसन्न हो जाता हैं यदि भगाने की दृष्टि से किया है तो जिसको लगे हुए हैं,वह चिल्लाता/तड़पता है कि मैं
जा रहा हूँ, मुझे छोड़ दो; जबकि कोई पकड़ा नहीं है और पुदगल से पुदगल ने उसे खींच कर बाहर कर दियां ऐसे ही कर्म-वर्गणायें इस लोक में ठसाठस भरी हुई हैं जैसे एक कम्प्यूटर में छोटी सी चिप के अंदर कई ग्रंथ भर देते हो! उसमें कौन सी ऐसी शक्ति है जो भरे जा रहे हो? ये पुदगल में पुदगल भरे जा रहे हैं
आत्मा चाहे निगोंदिया के शरीर में हो, चाहे हाथी के शरीर में, वह असंख्यात-प्रदेशी ही है और सत्तर कोड़ा-कोड़ी तक बंध करने वाले कर्म भी इस आत्मा में चिपक जाते हैं अहो! सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर-प्रमाण में भटकने की जिसे फुरसत हो वे देव-शास्त्र-गुरु आदि की खूब अवहेलना करें इसलिए, कभी किसी के बारे में अपशब्द मत कहनां किसने क्या कहा, किसे क्या किया, उसकी भवितव्यता वह जानें हमारे यहाँ पापी की भी आलोचना को मना किया हैं आगम तो कहता है कि मुझे समझकर ऋजुता लाओ! जो जिनवाणी पढ़कर भी सूखे बने हुए हैं, ऐसे लोगों के परिणाम बड़े कलुषित होते हैं पर ध्यान रखना, यह संसार की माँ तो तुझे जन्म देकर संसार में डाल देती है, परन्तु जिनवाणी -माँ संसार से निकाल कर सिद्धालय में भेज देती हैं संसारी माँ ने तुझे आंचल का दूध पिलाया है, तेरा पेट भरा है, पर जिनवाणी माँ चारों अनुयोगों के आँचल का पान कराकर तेरे जन्म, जरा, मृत्यु के रोग को मिटाने वाली हैं इसलिए इस माँ को भूल नहीं जानां
भो ज्ञानी! आचार्य भगवन् अमृतचंद स्वामी इस तेरहवीं कारिका में कह रहे हैं कि जैसे आत्मा के परिणाम, कर्म वर्गणाओं को कर्म रूप परिणमित होने में निमित्त बने, वैसे ही तुझे राग-द्वेष रूप परिणमन
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