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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 143 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
परन्तु अपेक्षा मात्र सम्यक् ज्ञान नहीं है क्योंकि मिथ्यादृष्टि भी कहता है कि मैं अपनी अपेक्षा से सत्य हूँ : लेकिन जिनवाणी कहेगी कि तू असत्य हैं एकांत को माननेवाला जीव भी कहता है कि मैं भी अपनी अपेक्षा से सत्य हूँ भो ज्ञानी! जितने वचनवाद होते हैं, उतने नय होते हैं
ज्ञानं प्रमाणमात्यादे रुपायो न्यास इष्यतें
नयो ज्ञातुरभिप्रायो, युक्तिोऽर्थ परिग्रहः लघीय स्त्रीं
ज्ञाता के अभिप्राय को जिनवाणी में नय कहा हैं यदि वह अभिप्राय सम्यक् हैं तो सम्यक् नय है और असम्यक् है तो असम्यक् नय हैं लेकिन जो नय सम्यक् अपेक्षा से शून्य होता है, वह मिथ्या होता है और जो नय सम्यक् अपेक्षा से युक्त होता है, वह सुनय होता हैं यह सुनय ही सुनय करा सकता है, कुनय कभी सुनय नहीं करा सकतां
मनीषियो! अभिप्राय निर्मल है तो आप सर्वत्र सम्यक् को खोज लोगे और अभिप्राय निर्मल नहीं है तो समीचीनता में भी दोष नजर आता हैं अहो! संसार की बड़ी विडम्बना हैं उपकार भी करना तो नीति को सीखकर ही करना, क्योंकि उपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं है, परंतु उपकार भी समझकर ही करनां एक बार बिल्ली को देखकर चूहा तड़पने लगा तो राजहंस ने करुणावश फैला दिये अपने पंख, कि लो बेटा! तुम छुप जाओ, तुम्हारी रक्षा हो जाएगीं जिसके परिणाम - हंस जैसे होते हैं, वह धवल होता हैं, शुभ्र होता हैं, क्योंकि उसके परिणामों में विकार नहीं होता, परिणामों में निर्मलता होती हैं अतः, हंस-पक्षी ने अपने पंख फैला लिए और चूहे को छिपा लियां पर चूहे ने पंखों में बैठे-बैठे अपने दाँतो का काम शुरू कर दियां कुछ क्षण के उपरांत बहेलिया (शिकारी) आया तो हंस कहता है "हे मूषक! तेरा शत्रु तो जा चुका अब मेरा शत्रु सामने आ रहा है, अब आप मेरे पंखों से बाहर निकल जाओ, मुझे उड़ान भरना हैं चूहा आवाज सुनते ही फुदककर निकल गया, क्योंकि वह तो स्वार्थी थां इधर जैसे ही हंस ने उड़ान भरी कि पंख नीचे टपक गए और बहेलिये ने बाण मार दियां अहो हंस! तू तो हंस था, पर नहीं समझ सका था उस काले चूहे की करतूत कों
भो ज्ञानी ! संसार में नाना जीव हैं, जो पंखों में छिपे होते हैं और अंदर-ही-अंदर वह दाँतों से काटते रहते हैं जीवन में ध्यान रखना, साधु-पुरुष अपने उपकारी के उपकार को कभी नहीं भूलता, परंतु असाधुजन अपने कार्य की पूर्ति होते ही उपकारी को भी वही अवस्था दिखाते हैं, जो चूहे ने हंस को दिखायीं अहो ! सब कुछ चला जाए, परंतु उपकारी के उपकार को नहीं छोड़ देना
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