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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 161 of 583 ISBN # 81-7628-131-
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भावविरदो दु विरदो, ण दव्वविरदस्स सुग्गई होई विसयवणरमणलोलो, धरियव्वो तेण मणहत्थी 997
भाव-व्रती को ही व्रती कहा गया है, केवल द्रव्य-व्रती की सुगति नहीं हैं अहो! देह के रागियो, देह के ब्रम्हचारियो! अपने अन्तस् से पूछो कि भाव के ब्रह्मचारी कितने हो ? यदि नहीं हो, तो सुगति नहीं होगी भेष से कह रहे हो तो भेष पूजा जायेगा और यदि भाव से करोगे, तो भगवान् बन जाओगें नमोस्तु-शासन बड़ा निर्मल है, बड़ा ईमानदार दर्शन हैं इसलिए मन-हस्ति को ज्ञान-अंकुश से पकड़ लो और चारित्र की रस्सी में बांध लों वह जब तुम्हारे वश में हो जायेगा तो आप उस पर सवारी करके मोक्षमहल पहुँच जाओगें वह आपको सिद्धशिला में पहुँचा देगां भो ज्ञानी! आत्म-ज्ञान ही सर्वस्व है, ज्ञान सर्वस्व नहीं हैं ज्ञान तो अभव्य जीव को ग्यारह अंग का भी हो जाता है, लेकिन वह ज्ञान निर्वाण का हेतु नहीं होतां कोरा-ज्ञान निर्वाण का हेतु नहीं है, वह संसार का ही हेतु हैं अहो! निर्वाण के मार्ग पर चलनेवाली आत्माओ! निर्माण में मत लग जाना, यदि अन्य किसी निर्माण में लग गये, तो निर्वाण कार्य तुम्हारा अवरुद्ध हो जायेगां अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि उदासीन का उलटा अर्थ मत लगा लेनां अरे हंस-आत्माओ! धर्म-धर्मात्मा को देखकर प्रमुदित हो जाना, पर विषय-कषायों को देखकर उदासीन हो जाना, द्वेष नहीं करनां अरे! जब संकट आ गया, तो संसार असार दिखने लगा और तनिक प्रशंसा हो गयी, तो सार-ही-सार नजर आने लगा; ऐसा कैसा असार ? ज्ञानी तो जब विषमता थी, तब भी असार मानता था और जब अनुकूलता है, तब भी असार मानता हैं
भो ज्ञानी! ध्यान रखो, उपासक ही उपास्य बनता हैं श्रमण-संस्कृति में जिनदेव का शासन उपासक को भी उपास्य बना देता हैं आचार्य महाराज सहजता से कह रहे हैं कि योगी की वंदना करना ही समयसार की उपासना है, क्योंकि 'समयसार' ग्रन्थ तो कागजों पर है; परंतु निग्रंथ की परिणति में समयसार हैं ग्रन्थ का समयसार शब्दों का समयसार है, जबकि निग्रंथों का समयसार स्वभाव का समयसार हैं स्वभाव-समयसार को समझना चाहते हो तो स्वभावी के पास पहुँचना पड़ेगां स्वभावी के पास जाये बिना स्वभाव-समयसार मिलनेवाला नहीं है, क्योंकि जले दीप के पास ही बुझा दीप जाता हैं आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने 'समाधि शतक' में लिखा है
भिन्नात्मानमुपास्यात्मा, परो भवति तादृशः
वर्तिदीपं यथापास्य, भिन्ना भवति तादृशीं 97 Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
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