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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 169 of 583 ISBN # 81-7628-131-
3 v -2010:002 'प्रमाद में हिंसा, अप्रमाद में अहिंसा'
युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव 45
अन्वयार्थ : अपि = और युक्ताचरणस्य = योग्य आचरणवालें सतः = सन्त पुरुष के रागाधावेशमन्तरेण = रागादिक भावों के बिना प्राणव्यपरोपणात् = केवल प्राण के पीडन में हिंसा = हिंसां जातुएव = कदाचित् भी न हि भवति = नहीं होती
व्युत्थानावस्थायां रागादिनां वशप्रवृत्तायाम् म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसां 46
अन्वयार्थ : रागादिनां = रागादिक भावों के वशप्रवृत्तायाम् = वश में प्रवृत हुईं व्युत्थानावस्थायां = अयत्नाचाररूप प्रमाद-अवस्था में जीवः म्रियतां = जीव मरें वा मा म्रियतां = अथवा न मरे, परंतुं हिंसा ध्रुवं = हिंसा तो निश्चयकरं अग्रे धावति = आगे ही दौडती हैं
___ भो मनीषियो! आज तक मैंने अनंत पर्यायों को स्वीकारा, अनंत पर्यायों में अनंतों को जाना है, अनंत भावों को किया, परंतु अहिंसा-भाव नहीं हुआं अहिंसा-भाव हो गया होता तो आज कलिकाल में उत्पन्न नहीं हुआ होतां अहो! मैंनें स्वयं का भी घात किया है, स्वयं से भी घात किया हैं भो ज्ञानी! लगता जरूर है कि मैंने दूसरे का घात किया; परंतु दूसरे की तो पर्याय का घात होता है, लेकिन परिणामों का घात तेरा ही होता दूसरे की पर्याय का विनाश हुआ है, पर तेरी परिणति का पहले विनाश हुआ हैं पर्याय जितनी महत्वशाली है, परिणति उससे कई गुनी महत्वशाली हैं पर्याय पुनः मिल जाती है, परंतु वैसी परिणति पूरी पर्याय में नहीं मिल पातीं एक समय के निर्मल परिणामों से लगता है कि योगी की क्या दशा होगी और एक क्षण के परिणाम विकृत कर लेने पर लगता है कि क्रोधी की क्या दशा होती होगी? यह किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं हैं तीर्थंकर भगवान् ने यही तो कहा है-"कषाय के उदय में तीव्र परिणामों से चारित्रमोहनीय-कर्म का आस्रव
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