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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 189 of 583 ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
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"कषाय- भावों के अनुसार ही फल की प्राप्ति”
एकस्य सैव तीव्रं दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्यं
व्रजति सहकारणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकालें53
अन्वयार्थः
सहकारिणोः अपि हिंसा
= एकसाथ मिलकर की हुई हिंसा भी अत्र फलकाले = इस उदयकाल में वैचित्र्यम् व्रजति विचित्रता को प्राप्ति होती हैं एकस्य सा एव किसी एक को वही हिंसां तीव्रं फलं दिशति = तीव्र
फल दर्शाती हैं अन्यस्य = किसी अन्य को सा एव मन्दम् = वही हिंसा न्यून फल देती हैं
प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति फलति च कृतापिं आरभ्य कर्तुमकृताऽपि फलति हिंसानुभावेन 54
अन्वयार्थः
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हिंसा प्राक्एव ( प्रागेव ) कोई हिंसा पहिले हीं फलति = फल जाती हैं क्रियमाणा फलति = कोई करते-करते फलती हैं कृतापि फलति कोई कर चुकने पर भी फलती हैं च = औरं कर्तुम् आरभ्य =हिंसा करने का आरंभ करके अकृता अपि फलति = न करने पर भी फल देती हैं हिंसा अनुभावेन फलति = इसी कारण से हिंसा कषाय-भावों के अनुसार ही फल देती हैं।
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मनीषियो! आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने पूर्व सूत्र में संकेत दिया था कि हिंसा के अभाव में भी जीव हिंसक है और हिंसा के सद्भाव में भी जीव हिंसक हैं "भावेण बंधो, भावेण मोक्षो " - परिणति ही बंध है, परिणति ही मोक्ष हैं परिणति निर्मल है, तो प्रत्येक क्षण तेरी निर्बंधता के हैं और परिणति तेरी निर्मल नहीं है, तो प्रतिक्षण तेरे बंध के हैं बंध कोई पर- द्रव्य नहीं करा रहा है, स्वयं की परिणति ही करा रही हैं अतएव जहाँ बंधता के परिणाम हैं, वहीं हिंसा और जहाँ निर्बंधता के परिणाम हैं, वहीं अहिंसा हैं माँ जिनवाणी कहती है - यदि आप भी स्वयं के द्वारा स्वयं को बंधन में डाल रहो हो, तो आप भी हिंसक हों वध करनेवाला तो पापी है ही, पर पापी का जो वध करता है, वह महापापी हैं अतः, करुणा की दृष्टि से रक्षा के भाव लानां भो ज्ञानी !
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