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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 206 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
लिख रहे हैं: अहो! भेदाभेद रत्नत्रय के आराधक वे निग्रंथ योगी निज-स्वभाव में लीन होते हैं, लेकिन वे भी शुभ-उपयोग में आते हैं, तो यह मत कहना कि शुभ उपयोग में ही रहते हैं जो शुभ-उपयोग में आते हैं, वे ही शुद्ध उपयोग में जाते हैं और जो शुद्ध-उपयोग में होते हैं, वे शुभ-उपयोग में भी आते है; क्योंकि अन्तर्मुहूर्त से ज्यादा उपयोग बनता ही नहीं शिष्य ने प्रश्न कर दिया-क्या श्रावक के भी शुद्धोपयोग होता है? भगवान् जयसेन स्वामी लिखते हैं कि वह श्रावक भी सामायिककाल में शुद्ध-उपयोग की भावना से युक्त होता है, उस श्रावक के भी शुद्धोपयोग की भावना होती है और ऐसे शुद्धोपयोग की भावना में लीन हुआ श्रावक, जिस प्रकार आम के बगीचे में एक-दो जामुन के वृक्ष हों फिर भी बगीचा जामुन का बगीचा नहीं, आम का ही कहलायगा, ऐसे ही शुद्ध-उपयोग की भावना में रत होने पर भी श्रावक शुभ-उपयोगी होता है, क्योंकि वह शुद्ध-उपयोग का बगीचा नहीं, शुभ उपयोग का बगीचा है और निग्रंथों के लिए यह बगीचा शुभ-उपयोग का नहीं यहाँ शुभ-उपयोग गौण है, शुद्ध-उपयोग प्रधान है, इसीलिए यहाँ शुभ-उपयोग होने पर भी इनको शुद्ध-उपयोगी निग्रंथ कहा जाता हैं जिन्हें निज देह से भी राग-द्वेष नहीं, वे पर-देह में राग-द्वेष कैसे कर सकते हैं? जब आप शरीर को पर-द्रव्य मानते हो, राग नहीं करते हो तो, द्वेष क्यों करते हो? यदि आप अपने शरीर से द्वेष रख रहे हो, तो पता नहीं कि पर-शरीरों से कितना द्वेष होगा? भो ज्ञानी! जिन्हें निज-देह एवं पर-देह में राग-द्वेष है, वे निग्रंथ-वेशधारी नहीं हैं आचार्य कार्तिकेय स्वामी अशुचि-भावना में लिख रहे
जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं अप्पसरूव सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स7 का. अ.
जो पर-देह से विरक्त हैं और निजदेह में भी जिनका अनुराग नहीं है, जिनकी सूरत (दृष्टि) आत्म-स्वरूप में लगी है, वे अशुचि भावना में लीन दिगम्बर वीतरागी गुरु ही हमारे परमगुरु हैं, वे ही शरण हैं जिसको माता,पिता, स्त्री, पुत्र की शरण समाप्त हो जाती है, तो फिर लगता है कि कोई शरण है तो वह गुरु की ही शरण हैं जिसे धन, तन और ग्रंथों की शरण है, उसे निग्रंथों की शरण झलकती ही नहीं हैं इसीलिए अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं यदि आपको तत्त्व को समझना है, तो आपको शरण की खोज करनी पड़ेगी, आश्रय तो लेना ही पड़ेगां बिना आश्रय के आप परमेश्वर बन ही नहीं सकतें अहो! जिसकी दृष्टि निर्मल होती है, उसे कहीं बुरा नजर नहीं आतां तीर्थकर बननेवाली आत्मा वही होती है, जिसे सब अच्छा लगता है और जिसका विश्व के प्राणीमात्र के प्रति बालकवत् व्यवहार होता हैं आप ऐसे ही गुरु की शरण में चले जानां
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