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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 102 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
"मत करो किसी से घृणा" क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा नैव करणीया 25
अन्वयार्थ : क्षुत्तृष्णा = क्षुधा, तृषा, (भूख, प्यास) शीतोष्ण = शीत, उष्ण (सर्दी, गर्मी) प्रभृतिषु = इत्यादि नानाविधेषु = अनेक प्रकार वाले भावेषु = भावों में पुरीषादिसु = मल आदिकं द्रव्येषु = पदार्थों में विचिकित्सा = घृणा (ग्लानि) नैव = नहीं करणीया = करनी चाहियें
मनीषियो! अंतिम तीर्थंकर भगवान वर्द्धमान स्वामी की पीयूषवाणी हम सभी सुन रहे हैं आचार्य भगवन् अमृतचंद स्वामी बहुत ही सहज कथन कर रहे हैं कि यदि भाव बदल गये, तो तुम्हारी भावनायें भी बदल गई भावना बदलने का कारण मात्र यह था कि आपने सीमा से ज्यादा सोच लिया थां चादर छोटी है और पैर लम्बे हैं, तो या तो पैर बाहर निकलेंगे या सिर बाहर निकलेगां भो ज्ञानी! ऐसा करो, चादर बढ़ाने की सामर्थ्य है नहीं, पैर छोटे करने की भी सामर्थ्य नहीं, तो पैरों को संकुचित कर लेनां ना चादर बढ़ाना पड़ेगा और ना पैर काटने पड़ेंगें मुमुक्षु जीव इच्छाओं को संकुचित कर लेता हैं अतः, आकार-प्रकार मत घटाओ, पर आकार-प्रकार को बढ़ाने वाली जो भावनायें हैं, उनको संकुचित कर लो, इसी का नाम संयम हैं भो चेतन ! संसार रहे, उससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं, पर मैं संसार में न रहूँ यह मुझे प्रयोजन हैं जो संसार का नाश करना चाहता है, वह तो हिंसक हैं अपनी संस्कृति को समाप्त करके, निमित्तों को नष्ट करके जो मुमुक्षु बनना चाहता है, वह अपने घर में बैठें क्योंकि निमित्तों का नाश करके मुमुक्षु नहीं बना जातां निमित्तों के होने पर उपादान को सँभाला जाता हैं निमित्त तो सर्वत्र मिलेंगे ही इसीलिए स्वयं की दृष्टि निर्मल करों
भो ज्ञानी! नगर में तो कम से कम विषयों की मर्यादाएँ हैं, परंतु जंगल में तो तिथंचों की मर्यादाएं भी नहीं हैं, वहाँ भी आप को निमित्त मिलेंगें नगर में आपके अंदर विकार और कषाय भड़कते हैं, तो आप कुछ समय के लिये सीमा में बंध जाते हो, लेकिन जैसे ही कषाय उदय में आई तो विकार उदय में आया तो वह भी प्रकट दिखता हैं इसीलिए तुम निमित्तों से बचकर रहो, निमित्तों को अपने अन्दर प्रवेश मत दों भो ज्ञानी । इच्छाओं को सम्हाल लो, वस्तु को तुम नहीं सम्हाल पाओगें एक बात का ध्यान रखना, वस्तु तुम्हें मिल भी जावेगी, यदि पुण्य नहीं होगा तो तुम सम्हाल भी नहीं पाओगें जिसे चक्रवर्ती की विभूति मिलती है, उसे
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