________________
***********************************************
**************************************************************
साथ ही पुरुष की प्रवृत्ति में जिस प्रकार श्रुतज्ञान उपकारी है उसी प्रकार देवता की कृपा * भी उपकारी है, यह बात ‘ऐन्द्रस्तुति' में पद्मप्रभस्तुति के श्लोक ४ की टीका में 'भवति हि पुरुषप्रवृतो श्रुतमिव देवताप्रसादोऽप्युपकारीत्येवमुक्तम्' कहकर भी उसकी पुष्टि की है।
इस दृष्टि से ही प्रेरित होकर सम्भवतः सभी साधकवर्ग यदि स्वयं कवित्वशक्ति रखता है तो* स्वयं स्तोत्रादि की रचना करता है अन्यथा अन्य साधकों द्वारा प्रणीत स्तुतियों से इष्टदेव की कृपा प्राप्त करता है।
इसी प्रसङ्ग में स्तोत्र, स्तुति, स्तव, संस्तव, स्तवन आदि शब्दों से रूढ प्रक्रिया के शाब्दिक एवं पारिभाषिक ग्रन्थों पर विचार करना भी अप्रासङ्गिक न होगा।
इन सभी शब्दों के मूल में 'टुञ्-स्तुतौ धातु का 'स्तु' रूप निहित है। स्तुति अर्थ में प्रयुक्त * इस धातु का स्फुट अर्थ गुणप्रशंसा होता है।' इसी के आधार पर
जिनेश्वर देव के विशिष्ट सद्गुणों के कीर्तनादि से सम्बद्ध जो रचनाएँ हुई है वे 'स्तोत्र' नाम से अभीष्ट हैं।
स्तोत्र-रचना दो प्रकार की होती है। एक नमस्काररूप और दूसरी जिनेश्वरदेव के असाधारण * गुणों का कीर्तन करने रूप। यहाँ द्वितीयरूप ही 'स्तोत्र' पद से गृहीत है।
अर्थ की दृष्टि से वैसे स्तोत्र, स्तव आदि शब्द समानार्थक ही है तथापि रचना की दृष्टि से * * कुछ सूक्ष्म भेद उपलब्ध होते हैं। यथा 'तत्र स्तुतिरेकश्लोकमाना, एवं दुगे तिसलोका, थुतीसु अनेसि* * जा होई, समय-परिभाषया स्तुतिचतुष्टये' आदि वाक्यों के अनुसार एक पद्य से चार पद्य तक की : रचना स्तुति कहलाती है जबकि 'स्तोत्रं पुनर्बहुश्लोकमानम्' (पंचा०) के अनुसार स्तोत्र अनेक
श्लोकवाला होता है। प्रस्तुत 'स्तोत्रावली' में प्रत्येक स्तोत्र के श्लोकों की संख्या भी ४ से अधिक * है, अतः इन्हें स्तोत्र की संज्ञा दी गई है।
'उत्तराध्ययनसूत्र' में यह भी कहा गया है कि- 'स्तुतिस्तू/भूय कथनम्' अर्थात् 'स्तुति खड़े होकर बोली जाती है। जबकि स्तोत्रस्तवादि बैठकर बोले जाते हैं।
स्तुतियों के प्रकार पद्यसंख्या एवं वर्ण्यविषय के आधार उपर ही बताये गये हैं जबकि रचनासौष्ठव, उक्तिप्रकार, वचनवैचित्र्य आदि की दृष्टि से तो ये अनेकविध होती हैं। उदाहरण के लिये१-वर्णविन्यासात्मक-एकाक्षरी से लेकर अनेकाक्षरी तक। २-भाषावैविध्य-पद्धतिरूप—प्राकृत, संस्कृत, देशी, अपभ्रंश आदि से मिश्रित । ३-चमत्कृतिमूलक-विविध चमत्कारपूर्ण शास्त्रीय पद्धतियों से रचित ।
***************************************************************
उच्चैधृष्टं वर्णनेडा, स्तवः स्तोत्रं स्तुतिर्नुति।। श्लाघा प्रशंसार्थवादक (अभिमान-चिन्तामणि, नाममाला, काण्ड २,
१८३-८४ ।) स्तुति म गुणकधनम् (महि० स्तो०) * २ स्तुतिर्द्विधा प्रणामरूपा, असाधारणगुणोत्कीर्तनरूपा च। आवश्यकसूत्रे । ******************** [४२०]********************