________________
33333338938383939393333333333333338393333338393333333333393303333338889330330393
3888888888888888888888888888888888888888888 8 हों तो मैं आपको प्रतिक्रमण के सूत्रों का अति संक्षिप्त भाव, सूत्रों के प्रारम्भ में समझा दूं, जिससे o आपको थोड़ा सन्तोष और आनन्द आयेगा। लेकिन कुछ 'हाँ' कहें और कुछ 'ना' कहें तो आपका * - अधिक समय लेने की मेरी इच्छा नहीं है। सबको विश्वास में लेने के लिये मैंने ऐसा कहा, इसलिये * चारों और से हमारी स्वीकृति है, ऐसा प्रत्युत्तर मिला। छोटे-बड़े सभी ने राजी-खुशी कहा; इसलिये ॐ मुझे बल मिला और मैंने छः आवश्यक क्या है ? उसे कहकर प्रथम आवश्यक 'सामायिक' से रहस्यों है
की समझ देना प्रारम्भ किया और प्रतिक्रमण को तमाम सूत्र एवं मुद्राओं का परिचय दिया। अन्त
में 'संतिकरं' पूर्ण हुआ तब पूरे तीन घण्टे बीत चूके थे, लेकिन मुझे कहना चाहिये कि कुछ भी * गड़बड़ी, अशान्ति, आवाज नहीं हुई, किसी ने अरुचि नहीं दिखलाई। प्रतिक्रमण पूर्ण होने पर किसी ॐ ने कहा कि जिन्दगी में प्रतिक्रमण क्या है यह आज जानने को मिला; सचमुच आज अपूर्व आनन्द
हुआ। हमें लगता था कि मुनिराज हमें मुहपत्ती के कपड़े को उघाड-बन्ध क्यों करवाते हैं! वंदना के समय ललाट क्यों कटवाते हैं, आप बोलते रहते हैं और जब हमें कछ भी समझ में नहीं आता तब वह भार रूप लगता जैसे बेकार बोझ उतार कर रहे हों, फिर कंटाला आता, नींद लेते, बातें करते या एक दूसरे का मुंह ताका करते और जेल की सजा की तरह समय पूरा करते रहते। ___ “आपने जो पद्धति प्रारंभ की है उसे यदि सभी मुनिराज अपनाएँ तो हमारे जैसे अज्ञानी जीवों के को आनन्द मिले और भावना जागृत हो।" उसी समय श्रावकों ने माँग रक्खी कि संवत्सरी में भी इसी प्रकार समझ देने की कृपा करें। मैंने कहा-सभी संमत होंगे तो मुझे हरकत नहीं है। इस बात की खबर लोगों को पहले से मिल चुकी थी। चौदस प्रतिक्रमण की हवा भी लोगों ने
खूब फैलाई थी, इसलिये संवत्सरी में जनसंख्या की गाढ़ आई, अपूर्व भीड़ हुई। सिमट-सिमट कर @ सब बैठे और मैंने चौदस की तरह ही उस दिन संवत्सरी प्रतिक्रमण की आराधना की महत्ता समझाई। 2 श्रोतावर्ग ने अत्यन्त रसपूर्वक सुना। प्रतिक्रमण पूर्ण होने पर जनता के आनन्दोल्लास की सीमा न * रही। पूरे चार घण्टे में क्रिया समाप्त हुई।
इस पद्धति के प्रचलन करने पर प्रारंभ में तो इसे हमारे समुदाय के साधुओं ने अपनाली और शनैः-शनैः अन्य संघाडे-समुदाय के साधुओं ने भी अच्छी मात्रा में अपनाई है। मैं देख रहा हूँ कि इससे जनता का भावोल्लास खूब बढ़ता है और कुछ समझ-बूझकर करने का आनन्द भी प्राप्त करते हैं। इतनी प्रासंगिक घटना के कथन के बाद अब मूल बात पर आता हूँ। परिस्थिति
के कारण अब सब जगह साधु महाराज प्रतिक्रमण करावें, यह शक्य नहीं है। इसलिये मेरे मन a में हुआ कि प्रतिक्रमण में जो कहता हूँ वह हकीकत विस्तार करके उसे संवच्छरी विधि की पुस्तक ॐ के रूप में यदि मुद्रित की जाय तो शहरों के लिये सचमुच ही आशीर्वाद सिद्ध होगी। इस विचार के 4 में से इस पुस्तक का सर्जन हुआ और उसका प्रकाशन हुआ। यह पुस्तक जनता को कितनी पसन्द ॐ पड़ी, वह सब हकीकत प्रकाशकीय निवेदन में बतलाई है, इसलिये यहाँ उस सम्बन्ध में विशेष निर्देश ॐ नहीं करके इतना ही कहना पर्याप्त मानता हूँ कि इस पुस्तक को अत्यन्त उपयोगी पुस्तक के रूप में जनता ने अपनाकर खूब हार्दिक धन्यवाद भी प्रेषित किये है।
(गुजराती प्रथमावृत्ति में से उदृत)
833333893384323888888888888888888888338
8888888888888888888 |
88888888888888888