Book Title: Prastavana Sangraha
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Muktikamal Jain Mohanmala

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Page 749
________________ निवास है वह पहले नरकके ऊपरी भागमें है। अतिउत्तम पुण्य किये हुए जीव देवलोकमें जाते हैं और छ अतिपाप किये हुए जीवोंको विविध नरकमें जन्म लेना पड़ता है। इस नरकके दुर्भागी पापी जीवोंको । भयंकर कष्ट और दुःखोंका अनुभव करना पड़ता है, और मध्यम प्रकारके पुण्य किये हुए जीवोंको ई मनुष्यलोकमें जन्म लेना पड़ता है, यह सापेक्षभावसे समझना चाहिये। और इस संग्रहणी ग्रन्थमें एकेन्द्रियसे लेकर पञ्चेन्द्रिय तकके जीवोंकी कायाका माप, उनका आयुष्य, । के प्रकार, परिस्थिति, निगोदके जीवोंका तथा मनुष्यकी कायासे सम्बन्ध वर्णन, मनुष्यकी आयुष्यमीमांसा, द्वीप समुद्रोका वर्णन, आकाशमें स्थित कतिपय वस्तुओंका वर्णन, भिन्न-भिन्न मापका वर्णन, पर्याप्तियोंका वर्णन है एवं अन्तमें विशेष जानने योग्य ऐसे २४ द्वारोंका वर्णन आदि विविध विषयोंका विवेचन करनेमें आया है। इनके अतिरिक्त चक्रवर्तीका वर्णन, सिद्धशिला, वासुदेव, उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुलकी व्याख्या, आयुष्यक 68 प्रकार, पयाप्तिके प्रकार, विविध प्रकारके शरीर आदिका स्वरूप, इस प्रकार छोटी-बड़ी, अनेकानेक व्याख्याओको संग्रहणी ग्रन्थमें गूंथ दिया गया है। चैतन्यकी शक्ति कैसी है, उसकी कुछ झाँकी हो सके, उसके लिये नीचे उदाहरण दिया गया है। वैज्ञानिक विज्ञानकी आँखसे अर्थात् यान्त्रिक आँखोंसे अधिकसे अधिक वे सा अरव मीलों तक दूर-स्थित वस्तुको देख सकनेमें कदाचित् समर्थ हो सकते हैं परन्तु जैनधर्ममें जो एक राज प्रमाण कहा * है, उसे उतनी दूरी पर स्थित आकाशको देखनेके लिये वे कभी समर्थ नहीं हो सकते। उसका कारण ५ * यह है कि एकराज यह असंख्य ऐसे अरबों मीलोंके प्रमाणवाला हैं। चौदह राजप्रमाण और लोकप्रसिद्ध भाषामें ब्रह्माण्ड अर्थात् दृश्य-अदृश्य, अखिल विश्वकी विशेषता तो देखिये। ऐसे चौदह राजलोकप्रमाण आकाशके नीचेसे शिखरकी नोंक तक पहुँच जाना हो तो अर्थात् मोक्षमें। जाना हो तो एक शक्ति ऐसी है कि जो आँखकी एक पलक गिरनेके असंख्यातमेंसे एक भागमें पहुंचा | जाता है, यह शक्ति कौनसी है? यह शक्ति कोई अन्य नहीं अपितु आत्माकी अपनी चैतन्यशक्ति ही है है है, जो कि आत्मा तलभागसे लेकर सातराज तकके क्षेत्रमेसे मोक्षके लिये प्रस्थान करनेका अर्थात् गति । छु करनेका अधिकारी है। क्योंकि मोक्ष मनुष्यलोकसे और उसमें भी मनुष्यलोकके अतिमर्यादित स्थलसे ही छु * जा सकता है; किन्तु इतने ही मनुष्यलोकसे सातराज मोक्ष दूर है। जीव संसारका पूर्ण अन्त करता है तब अन्तिम क्षणमें सदाके लिये स्थल और सक्ष्म दोनों शरीरोंका सम्बन्ध छोड़ देता है। जब वह अशरीरी छु बनता है उसी क्षण वह असंख्य कोटानुकोटी मीलों तक अर्थात् एक सेकण्डके अनेक अरबोंके एक भागके * समयमें मोक्षमें पहुँच जाता है। इतनी गहन, अकल्पनीय, अद्भुत, कहीं जानने-पढ़नेमें नहीं आये, ऐसा * वात तीर्थकरोंके केवलज्ञानने हमें बतलाई है। सर्वज्ञसे ही दृष्ट वातको अरार्वज्ञ कभी जान नहीं सकता. है अतः यह बात धरती पर विद्यमान किसी ग्रन्थ अथवा पुस्तकमें आपको नहीं मिलेगी, केवल सर्वज्ञापदिष्ट है. जैन आगमादि शास्त्रोंमें ही मिलेगी। +----3000-32*3800 -2800- 3 3 0014--08- 200 -3009

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