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जीवोंमें प्राण हैं-जीव है किन्तु एक स्थानसे दूसरे स्थान पर स्वेच्छासे जा-आ नहीं सकते उनको स्थावर कहते हैं। स्थावर अर्थात् स्थिर। इनमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिका समावेश होता है।
स्थावरसे विपरीत 'त्रस' कहलाते हैं। बस अर्थात् ठण्ड और गर्मी-धूपके किसी भी प्रकारके त्रासदुःखका अनुभव होने पर गति कर सके, एक स्थानसे दूसरे स्थान पर जा सकें वे। इनमें द्वीन्द्रियदो इन्द्रियवाले, त्रीन्द्रिय-तीन इन्द्रियवाले, चतुरिन्द्रिय-चार इन्द्रियवाले और पञ्चेन्द्रिय-पाँच इन्द्रियवाले। ऐसे चारों प्रकारके जीवोंका समावेश होता है। ये त्रसजीव एकराज लम्बी-चौड़ी जगहमें ही उत्पन्न होते हैं और मरते हैं। इसके बाहरके भागमें एक भी जीव उत्पन्न नहीं होता और नहीं मरता है।
तब प्रश्न होता है कि क्या त्रस नाड़ीमें स्थावर जीव नहीं हैं ? तब कहते हैं कि--पूर्णरूपसे हैं। स्थावर जीव तो ढूंस-टूंस कर रहते हैं-विद्यमान हैं। सनाड़ीका सम्पूर्ण अर्थ लिखें तो ऐसा होगा किअखिल ब्रह्माण्डमें अथवा संसारमें जो कुछ सूक्ष्म अथवा स्थूल जीव हैं, जिनमें चैतन्य विद्यमान है, वे सभी त्रस नाड़ीमें दूंस-ट्रॅस कर भरे हुए हैं। सुईकी नोक जितनी जगह भी खाली नहीं है।
इतना विवेचन करनेके पश्चात् मूल बात पर आते हैं
इस 'बृहत् संग्रहणी' ग्रन्थमें चौदह राजलोक-विश्व कैसा है ? इसकी पर्याप्त जानकारी दी गई है। चादह राजलोकके ऊपरके अन्तिम भाग पर सिद्धशिला-मोक्षस्थान है। जो सकल कर्मोका क्षय करके ज्योतिःस्वरूप ऐसे अपनी आत्माको सदाके लिये देहसे मुक्त करता है कि तत्काल आत्मा अपने स्थानसे , ऊर्ध्व जाकर अनन्त आत्माओंकी ज्योति जहाँ स्थित है वहाँ ज्योतिरूपमें स्थिर होती है। जैनधर्मकी दृष्टिसे मोक्षमें गई हुई आत्माओंको जन्म लेनेके लिये इस संसारमें पुनः आना नहीं पड़ता। यह मोक्ष क्या । है ? इसका प्रमाण-स्वरूपात्मक स्थिति क्या है ? सिद्धशिला पर क्या है ? तथा मोक्षस्थानसे नीचे उतरते अनन्त आकाशमें ही उत्तमकोटिके, विविध प्रकारके देवोंके स्थान और उनके असंख्य विमान होते हैं। तत्पश्चात् नीचे आने पर सूर्य, चन्द्र आदिका ज्योतिषलोक आता है। उससे नीचे उतरने पर आजका मनुष्यलोक जिस धरती पर हम रहते हैं वह स्थान आता है। इस धरतीके केन्द्रमें मेरुपर्वत स्थित है जो लाखों मील दूर है, जिसे हम देख नहीं सकते। जहाँ हम रहते हैं उस धरतीके नीचे, हजारों मील नीचे जाएँ तव नीचे देव-देवियोंका स्थान और सात नरक स्थित हैं। इन सभी विषयोंका वर्णन प्रस्तुत ग्रन्थमें दिया गया है। ____ हमारी यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली धरती जैनभूगोलमें तो सागरके समक्ष बिन्दु जितनी भी नहीं है। इस मनुष्यलोककी धरती पर असंख्य द्वीप एवं समुद्र विद्यमान हैं उनके मध्यमें 'जम्बूद्वीप' है। उस जम्बूद्वीपके छोर-सीमा भागमें विद्यमान दुनिया है। उस जम्बूद्वीपके मध्यमें महाविदेहक्षेत्र भी आया हुआ है। मेरुपर्वत भी जम्बूदीपके मध्यमें ही स्थित है। इस मनुष्यलोकमें अमुक भागमें सूर्य और चन्द्र फिरते हैं और अमुक भाग पूर्ण होनेके पश्चात् सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र और ज्योतिषचक्र है, वे स्थिर है गतिमान नहीं।
तिर्यंचलोकमे एकेन्द्रियसे लेकर पञ्चेन्द्रिय तकके जीवोंका कायामान, आयुष्यमान, लेश्या, परिणाम । आदिका वर्णन दिया गया है।
हमारी धरतीके नीचे हजारों मील जानेके बाद भवनपति एवं व्यन्तर ऐसे दो जातिके देवोंका जो --- 26--07- 3 388% E- [ ७१८ ] *+7-300 +7-3-889•*- 368