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આચાર્યશ્રી યશોદેવસૂરિજી લિખિત
ujथ परिशिष्ठी लिहीन.
પ્રસ્તાવના
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वि. सं. २०४८
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ઇ.સત્ ૧૯૯૩
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॥ सर्वविघ्नविदारणायश्रीमलोढणपार्श्वनाथाय नमोनमः ॥ ॥ परमपूज्यआचार्यश्रीमद्विजयमोहनसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः ॥
( कुछ प्रास्ताविकता )
___ जैन श्वेतांबर संघमें 'संग्रहणीरत्न', 'वृहत्संग्रहणी' अथवा 'मोटी संग्रहणी ये तीनों नाम ॐ एक ही ग्रन्थके हैं। समाज में तो मोटी (बडी) संग्रहणीसे प्रख्यात है। उसका अपरनाम त्रैलोक्यदीपिका भी है। भिन्न-भिन्न आगमों--शास्त्रों के विषयोंको ग्रहण कर उसकी प्राकृत गाथायें बनाकर, उन्हें संग्रहित कर यह ग्रन्थ तैयार किया गया है। इस ग्रन्थकी रचना जैनसंघके दो आचार्योने की है। एक थे जैनधर्म के महान् आचार्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और दूसरे थे श्रीचन्द्रमुनीश्वर। इस संग्रहणीका गुजराती भाषान्तर सुंदर रोचक सही भाषांतर नहीं मिलता था, इसलिये इसका भाषांतर १५ से २० वर्ष की उम्रमें मैंने वि. सं. १६६०-६१ में वहत परिश्रमपूर्वक किया। कुछ चित्र भी उस समय बनवाये थे। वह ग्रन्थ वि. सं. १६६५ में प्रसिद्ध हुआ। उसीकी दूसरी आवृत्ति प्रगट होनेकी तैयारी में है।
संग्रहणी भाषांतरसे संबंधित जानने योग्य गुजराती में पाँच परिशिष्टोंकी प्रथम आवृत्ति ५० वर्ष पूर्व प्रकाशित हो गई थी। वर्षोंसे वह अप्राप्य थी, अतः उसकी दूसरी आवृत्ति संस्थाने तार प्रसिद्ध की है। वह पाँच परिशिष्ट का ज्ञान हिन्दीभाषी प्रजाको मिले इसलिये हमें गुजराती अनुवाद परसे हिन्दी अनुवाद करवाया और वो हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रकाशित हो रहा है। यह हिन्दी पुस्तिकामें निम्नांकित पाँच परिशिष्ट है।