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इस पुस्तक की उपयोगिता और स्वानुभव की उपलब्धि
[प्रथमावृत्ति से उद्धृत] वास्तविकता तो यह है कि आराधक आत्माओं को, यदि उन्हें आराधना के प्रति सचमुच रसमय रुचि जागृत हुई हो तो प्रतिक्रमण के सूत्रों को अवश्य कंठस्थ कर लेना चाहिये। उसके अर्थ का ॐ भी ज्ञान कर लेना चाहिये। अर्थज्ञान के अभाव में मात्र सूत्र के बिलकुल अपरिचित शब्दों को
श्रद्धावान व्यक्ति आदर और बहुमान पूर्वक चाहे भले ही श्रवण करें लेकिन उतने मात्र से यथार्थ । * आनन्द की अनुभूति हो नहीं सकती। वस्तुतः इस क्रिया के साथ तादात्म्य साधना हो तो उनके है रहस्यों का ज्ञान प्राप्त करना ही होगा।
मेरा अनुमान है कि हमारे यहाँ ८० प्रतिशत वर्ग ऐसा है कि प्रतिक्रमण के पूरे सूत्रों को जानता ही नहीं है। ५५ प्रतिशत वर्ग ऐसा है कि जिन्हें अर्थज्ञान नहीं है। सिर्फ जैन होने के * नाते इच्छा-अनिच्छा से प्रतिक्रमण करने आयेंगे। तीन घण्टे बैट भी जायेंगे, लेकिन उस समय वे
मात्र एक प्रेक्षक हो ऐसा उन्हें लगेगा। या तो नींद लेंगे, या बांते करेंगे, हँसी-मजाक करेंगे, कंकडपथ्थर जो हाथ में आया फेकेंगे, अपना तो बिगड़ेंगे, साथ में दूसरों को विक्षुद्ध करके बिगाड़ेंगे।
कुछ नहीं तो सारी दुनिया की चिंता करते हुये गुमसुम बैठे रहेंगे। प्रतिक्रमण पूरा होने के बाद ॐ उन्हें पूछीये कि आपने क्या किया ?, कुछ समझ में आया ? आनन्द मिला? उसका उत्तर क्या मिलेगा
यह लिखने की जरूरत है क्या ? इसीलिये उनके अर्थ और भावार्थ का खयाल किया जा सके तभी 8 अच्छी कमाई हो सकेगी।
साथ ही यह भी जानना जरूरी है कि इसका अर्थ कोई ऐसा न करे कि अर्थ का ज्ञान न ॐ हो वहाँ तक प्रतिक्रमण करना ही नहीं। यह भी मिथ्या-अज्ञान वचन है; क्योंकि पू. गणधर भगवंत • प्रणीत सूत्रों में ऐसी शक्ति बैठी हुई है कि श्रद्धा और आदर-पूर्वक श्रवण किया जाये तो सुनने वाले
को लाभ होता ही है। जैसे हरड़े औषधि और चिंतामणि आदि के दृष्टांत प्रसिद्ध हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि अर्थ का ज्ञान होगा तो उन्हें अपूर्व आध्यात्मिक आनन्द प्राप्त होगा।
इस दूसरी आवृत्ति की पुस्तकों के लिये यह जानने को मिला कि अनेक युवाओं ने इस पुस्तक 8 में दिये गये भावार्थ, प्रस्तावना आदि पढ़ने के बाद संवत्सरी प्रतिक्रमण किया और दूर से पूरे सूत्र
सुनने में न आने के कारण पुस्तकें खोलकर बैठे, प्रतिक्रमण कराने वाले सूत्र बोलते, उनके साथ पुस्तक में देखकर वे लोग सूत्र बोलते थे इसलिये प्रतिक्रमण अच्छी तरह करे रहे है ऐसा सन्तोष का
अनुभव किया। सभी ऐसा कहते सुनाऊ पड़ते थे कि प्रतिक्रमण क्या वस्तु है, उनकी कुछ झलक * हमें इस बार मिली और बड़ा आनन्द मिला। अन्य लाभ ये हुए कि सबका मन पुस्तक पढ़ने में ॐ रहने से बातें बन्द हुई, इधर-उधर देखने की तक न रही, चित्त मन सूत्रों में बंधा रहा, इसलिये
सभा में अन्त तक शांति रही। इस दृष्टि से विचार करने पर लगता है कि इस पुस्तक की उपयोगिता * सफल सिद्ध हुई है। इससे क्रिया, रुचि, श्रद्धा और भाव के बढ़ने से बहुत से लाभ होंगे।
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