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*********************************************** * ४-कल्पनामूलक-वाचकों के मन को आनन्द के आकाश में विचरण करानेवाली कल्पना से संयुक्त। * ५-विविधार्थमूलक- एक अर्थ से लेकर दो, चार, दस, सौ अर्थों से युक्त । * ६-काव्यकौतुकपूर्ण- अनेक विषयगर्भ, चित्रबन्धादि तथा प्रहेलिका, समस्या-पूर्ति आदि काव्यकौतुकों
__से परिपूर्ण। इनके अतिरिक्त भी और कई प्रकार प्राप्त होते हैं, जिनकी विशेष चर्चा यहाँ प्रसङ्गोपात्त नहीं
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नामा
स्तुति किसकी की जाती है ? यह एक प्रश्न और उटता है, जिसका उत्तर है कि-देवताओं * में अरिहंतों की स्तुति की जाती है। अरिहंतों को तीर्थङ्कर भी कहा जाता है। अरिहंत सर्वज्ञ होते * हैं, सर्वदेशी होते है, सर्वोत्तम चारित्र्यवान् तथा सर्वोच्च शक्तिमान् होते है। अन्य शब्दों में कहे तो त्रिकालज्ञानी अर्थात् विश्व के समस्त पदार्थों को आत्मज्ञान द्वारा जाननेवाले तथा सभी पदार्थों को आत्म-प्रत्यक्ष से देख सकनेवाले तथा रागद्वेष से रहित होने के कारण सम्पूर्ण वीतराग और विश्व की समस्त शक्तियों से भी अनन्तगुण अधिक शक्तिसम्पन्न होते हैं। तथा नमस्कार-सूत्र अथवा नवकारमंत्र में पहला नमस्कार भी उन्हें ही किया गया है।
अरिहंत अवस्था में विचरण करनेवाले व्यक्ति संसार के सञ्चालक, घाती-अघाती प्रकारके प्रमुख * आट कर्मो में चार घाती कर्मों का क्षय करनेवाले होते हैं। इन कर्मों का क्षय होने से, अटारह
प्रकार के दोष कि जिनके चंगुल में सारा जगत् फंसकर महान् कष्ट पा रहा है, उनका सर्वथा ध्वंस * होने पर सर्वोच्चगुण सम्पत्रता का आविर्भाव होता है और विश्व के प्राणियों को अहिंसा, सत्य, अचौर्य,
अमैथुन तथा अपरिग्रह का उपदेश देते हैं और उसके द्वारा जगत् को मङ्गल एवं कल्याण का मार्ग दिखलाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को ही 'अरिहंत' कहते हैं।
ये अरिहंत जब तक पृथ्वी पर विचरण करते रहते है तब तक उन्हें अरिहंत के रूप में ही * पहिचानते हैं। किन्तु ये सिद्धात्मा नहीं कहलाते। क्योंकि इस अवस्था में भी अवशिष्ट चार घाती
कर्मों का उदय होता रहने से अल्पांश में भी कर्मादानत्व रहता है। पर जब ये ही शेष उन चारों * अघाती कर्मों का क्षय करते हैं तब अन्तिम देह का त्याग होता है और आत्मा को संसार में जकड़ * रखने में कारणभूत अघाती कर्मों के अभाव में संसार के परिभ्रमण का अन्त हो जाता है, असिद्धपर्याय * समाप्त हो जाता है, सिद्धपर्याय की उत्पत्ति होने पर आत्मा सिद्धात्मा के रूप में यहाँ से असंख्य * कोटानुकोटि योजन दूर, लोक-संसार के अन्त में स्थित सिद्धशिला के उपरितन भाग पर उत्पन्न हो * जाते हैं। तब वे सिद्धात्मा के अतिरिक्त मुक्तात्मा, निरञ्जन, निराकार आदि विशेषणों के अधिकारी * बन जाते है। शास्त्रों में शिवप्राप्ति, ब्रह्मप्राप्ति, निर्वाणप्राप्ति, मोक्षप्राप्ति आदि शब्दों के जो उल्लेख मिलते हैं, वे सभी शब्द पर्यायवाची हैं। सिद्धात्मा हो जाने पर उन्हें पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता है अर्थात् वे अजन्मा बन जाते हैं। जन्म नहीं तो जरा और मरण भी नहीं, और जरा-मरण नहीं तो उससे सम्बन्धित संसार नहीं, संसार नहीं तो आधि, व्याधि और उपाधि से संस्सृष्ट अन्य वेदनाएं, अशान्ति, दुःख, असंतोष, हर्ष-शोक-खेद-ग्लानि आदि का लेश मात्र सञ्चार भी नहीं। नमस्कार-सूत्र
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