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के द्वितीय पद में ऐसे ही सिद्धों को नमस्कार किया गया है और उन्हें द्वितीय परमेष्ठी के रूप * * में स्थान प्राप्त है।
वैसे स्तुति के पात्र तो पाँचों परमेष्ठी हैं। किन्तु उनमें भी धर्ममार्ग के आद्य प्रकाशक अरिहंत * ही होते हैं। जगत को सुख-शान्ति और कल्याण का मार्ग बतानेवाले भी ये ही हैं। प्रजा के सीधे उपकारक भी ये ही हैं। अतः सभी अरिहंत अथवा अरिहंतावस्था की स्तुति की जाए यह उचित * और स्वाभाविक है।
यहाँ यह भी विचारणीय है कि एक मनुष्य सामान्य स्थिति से उटकर अरिहंत जैसी परमात्मा * की स्थिति में कैसे पहुँचता होगा? इस सम्बन्ध में शास्त्रों के आधार पर उनके जीवन-विकास को अति संक्षेप में समझ लें।
अखिल विश्व के प्राणिमात्र में से कछ आत्माएँ ऐसी विशिष्ट होती हैं कि वे परमात्मा की स्थिति में पहुँचने की योग्यता रखती हैं।' ऐसी आत्माएँ जड़ अथवा चेतन का कुछ न कुछ निमित्त मिलने पर अपनी आत्मा का विकास करती जाती हैं। अन्य जन्मों की अपेक्षा मानवजन्मों में उस * विकास की गति अति तीव्र होती है। उस समय इन आत्माओं में मैत्र्यादि भावनाओं का उद्गम होता है और उत्तरोत्तर इस भावना में प्रचण्ड वेग आता है तथा एक जन्म में इन की मैत्रीभावना * पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है। उनकी आत्माओंमें सागर से भी विशाल मैत्रीभाव उत्पन्न हो जाते हैं। 'आत्मवत्सर्वभूतेषु सुखदुःखे प्रियाप्रिये', के समान विश्व की समग्र आत्माओं को वे आत्मतुल्य मानते हैं। उनके सुखदुःख को स्वयं का ही सुख-दुःख मानते हैं। उन्हें ऐसा अनुभव होता है कि-- जन्म-मरणादिक के अनेक दुःखों से व्याकुल दुःखी और अशरण-रूप इस संसार को मैं भोक्तव्य दुःखों * से मुक्ति दिला कर सुख के मार्ग पर पहुँचाऊँ। ऐसी शक्ति-बल मैं कब प्राप्त कर सकूँगा? ऐसी * आन्तरदृष्टि होने पर सामान्य निर्झर से अनेक गुना अधिक प्रभावशाली तथा वायु से भी अदिक वेग * शील प्रवहमान भावना का महास्त्रोत परमात्मदशा प्राप्त की जा सके ऐसी स्थिति निर्माण करता है।* इस स्थिति का निर्माण करनेवाला जन्म इस परमात्मा होनेवाले भव से पूर्ववर्ती तीसरा भव होता है * और बाद में तीसरे ही भव में पूर्व के भवों में अहिंसा, सत्य, क्षमा, त्याग, तप, सेवा, देव-गुरुभक्ति, करुणा, दया, सरलता आदि गुणों के द्वारा साधना की थी, उस साधना के फल-स्वरूप परमात्मा के रूप में अवतार लेते हैं। यह जन्म उनका चरम अर्थात् अन्तिम जन्म होता है। वे जन्म लेने के साथ ही अमुक कक्षा का (मति, श्रुत अवधि) विशिष्ट ज्ञान लेकर आते हैं। जिसके द्वारा मर्यादित प्रमाण की भूत, भविष्य और वर्तमान की घटनाओं को प्रत्यक्ष देखा-समझा जा सकता है। जन्म *
लेने के साथ ही देव-देवेन्द्रों के द्वारा पूजनीय बनते हैं। तदनन्तर धीरे-धीरे बड़े होते हैं। गृहस्थधर्म * __ में होते हुए भी उनकी आध्यात्मिक साधना चालू रहती है। स्वयं को प्राप्त ज्ञान के द्वारा अपना * __ भोगावली-कर्म शेष है, ऐसा ज्ञात हो तो उस कर्म को भोगकर क्षय करने के लिए लग्न करना * __ स्वीकार करते हैं और जिन्हें ऐसी आवश्यकता न हो तो उसे अस्वीकृत कर आजन्म ब्रह्मचारी ही *
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२सानिनि कारनपाला जन्म इस परमात्मा हा
* १. 'आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति छान्दोग्यउपनिषद् का यह वाक्य समझने में न आये तो अनर्थकारक बन जाए * * इस दृष्टि से श्री हेमचन्द्राचार्यजी ने उत्तरवाक्य सुधारकर 'सुखदुःखे०' पद रखकर निःसन्देह बना दिया है। ******************** [४२२] ********************