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उपोद्घात 'बच्चो ! दौड़ो ! दौड़ो ! उस ताड़ के नीचे लड्डुओं का ढेर पड़ा है' इत्यादि वाक्यों की तरह विश्वसनीय नहीं होता। और न ही 'पुत्रोत्पत्ति के लिए माता के साथ विवाह करो' ; या 'सुखवृद्धि के लिए दूसरों को लूटो-खसोटो और मारो' ; इत्यादि वचनों की तरह अनिष्ट प्रयोजन वाले प्रवचन सत्पुरुषों द्वारा ग्राह्य होते हैं ।
___ परन्तु इस शास्त्र में शास्त्र की उपादेयता के बारे में बताए गए पूर्वोक्त पांचों निमित्त पाये जाते हैं, जो इस मूलगाथा से स्पष्ट है। मूलगाथा में उक्त 'अण्हयसंवरविणिच्छयं' पद से पूर्वापर सम्बन्ध तथा इसमें प्रतिपाद्य विषय का संकेत किया गया है। इस शास्त्र में उपर्युक्त पद के अनुसार आश्रवों और संवरों का विस्तृत और स्पष्ट वर्णन किया गया है, जिसे पढ़-सुन कर प्रत्येक व्यक्ति आसानी से हृदयंगम कर सकता है । और सुलभता से आश्रवों से वियुक्ति और संवरधर्म की प्राप्ति कर सकता है । इसी प्रकार 'महेसिहिं सुहासियत्थं पद से यह शास्त्र वीतरागी सर्व जीवहितैषी आप्त पुरुषों द्वारा प्रतिपादित सिद्ध होता है और 'णिच्छयत्थं' पद से मोक्षप्राप्ति रूप इष्ट प्रयोजन भी सूचित किया गया है। इस प्रकार इस शास्त्र की उपादेयता में किसी प्रकार का संदेह नहीं रह जाता।
. आश्रय- 'आ.-समन्तात् श्रवन्ति-प्रविशन्ति कर्माणि येन स आश्रवः'-- इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिन कारणों से आत्मा में कर्म चारों ओर से प्रविष्ट होते हैं, उसे आश्रव कहते हैं । इसे एक दृष्टान्त द्वारा समझना ठीक होगा
___समुद्र के अगाध जल पर कोई नाव तैर रही है, सहसा उसमें छिद्र हो जाय तो चारों ओर से उसमें जल आने लगता है। इसी प्रकार यह संसार समुद्र के समान अथाह है, इसमें कार्माण वर्गणा के रूप में कर्मरूपी पानी लबालब भरा हुआ है,आत्मा छपी नौका इसमें तैरना चाहती है, परन्तु उसमें हिंसा, असत्य, स्तेय, मैथुन और परिग्रह ये पांच आश्रवरूपी पांच बड़े-बड़े छेद हो गये हैं, उन छेदों से कर्मरूपी जल चारों ओर से सतत घुसता रहता है, वह आत्मारूपी नौका को डूबा रहा है। मतलब यह है, कि आश्रवरूपी छेदों के द्वारा कर्मजल आत्मारूपी नौका में भर जाने से उसका डूब जाना निश्चित है।
संवर–'संवियन्ते निरुध्यन्ते फर्मकारणानि येन भावेन स संवरः'-इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'आत्मा के जिस परिणाम से आत्मा में आते (प्रविष्ट होते) कर्म रुक जाय, अथवा कर्मों का आश्रव (आगमन) जिससे बंद हो जाय, उसे संवर कहते हैं।
उदाहरण के तौर पर-जब आत्मा अपने समिति, गुप्ति, व्रत, अनुप्रेक्षा आदि शुभ परिणामों से. उन आश्रवरूपी छेदों को बंद कर देता है, रोक देता है, तो कर्मरूपी जल आत्मारूपी नौका में नहीं भर सकता और वह आत्मनीका सहीसलामत