Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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पृष्ठ | विषय कथन भी दोष भरा है
बौद्धका कहना ठीक नहीं ४८१ तीन चार ज्ञानोंके प्रवृत्त होनेका मीमां
प्रमेयद् वित्व प्रमाण वित्वका ज्ञापक सकमतानुसार विवेचन ४५-४६० कब बनता है ? ज्ञात होकर या प्रथम परिच्छेदका अंतिम मंगल १६२-४६३ अज्ञात होकर ? ज्ञात होकर कहो प्रामाण्यवादका सारांश
४६४-४६७ तो किस प्रमाणसे ज्ञात हुआ ? न प्रत्यक्षक प्रमाणवादका पूर्वपक्ष ४६८ प्रत्यक्षद्वारा ज्ञात हो सकता है न प्रत्यक्षोधेश [ द्वितीय परिच्छेदप्रारंभ ]
अनुमान द्वारा ज्ञात हो सकता है
बौद्ध मतानुसार प्रत्यक्ष तो स्वसू० १ का अर्थ - ४६९
लक्षणाकार है और अनुमान प्रमाणके भेदोंके चार्ट ( दो) ४७०-४७१
सामान्याकार है
४८३-४८५ सिर्फ एक प्रत्यक्षको प्रमाण माननेवाले
प्रमेयद्वित्वसे प्रमाद्वित्व माननेवाले __ चार्वाकका कथन ४७२-४७३
बौद्धके खंडनका सारांश
४८६ जैन द्वारा प्रत्यक्षकप्रमाणवादका
आगमविचार
४८७-४९४ निरसन
४७३.४७७
मीमांसकका आगमको पृथक् प्रमाण प्रत्यक्ष की तरह अनुमान भी प्रमाण है ४७३
माननेका समर्थन अनुमान प्रत्यक्ष पूर्वक न होकर तर्क
शब्दको धर्मी और अर्थवानको साध्य पूर्वक होता है
एवं शब्दको ही हेतु बनाकर प्रामाण्य अप्रामाण्यका निर्णय, पर
शाब्दिक ज्ञानको ( आगमको ) प्राणियों की बुद्धि का अस्तित्व
अनुमानमें अन्तर्भूत करना और परलोकादिका निषेध करने
गलत है
४८६-४६. के लिये चार्वाकको भी अनुमानकी
शब्द और अर्थका अविनाभाव नहीं जरूरत है
४७७ ।
हुआ करता न इन दोनोंका स्थान प्रमेयद्वित्वात् प्रमाण द्वित्ववादका
अभेद ही है
४६२ पूर्वपक्ष
४७८.४७६
आगमप्रमाणका पृथकपना और उसका प्रमेयद्वित्वात् प्रमाणद्वित्व विचार
सारांश
४९३-४९४ (बौद्ध) ४८०-४८६ उपमानविचार
४९५-४९९ सूत्र नं. २ का अर्थ
४०० मीमांसक द्वारा उपमा प्रमाणको पृथक प्रमेय ( पदार्थ ) दो प्रकारका होनेसे
मानना
४६५-४६ प्रमाण दो प्रकारका है ऐसा अर्थापत्तिविचार
५००-५०३
४८८
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