Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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पृष्ठ
४०७
३८६
[ ३२ ] विषय
विषय समवायसंबंधसे अपना ज्ञान अपने में
प्रामाण्यवादका पूर्व पक्ष ४०१.४०५ रहता है ऐसा कहना प्रसिद्ध है। ३८४ प्रामाण्यवाद अनवस्थाको दूर करनेके लिये महेश्वर में
(मीमांसक) ४०६-४६७ तीन चार ज्ञानोंकी कल्पना करे
सूत्र ११-१२ का अर्थ तो भी वह दोष तदवस्थ ही रहेगा ३८५
सूत्र १३ का अर्थ अर्थकी जिज्ञासा होनेपर मैं (अर्थज्ञान)
मीमांसक प्रमाण में प्रामाण्य स्वतः ही उत्पन्न हुआ है ऐसी प्रतीति
__ आता है ऐसा मानते हैं
४०८ किसको होती है
ज्ञप्तिकी अपेक्षा स्वतः प्रामाण्य है या ज्ञानको जानने के लिए अन्य अन्य ज्ञानों
उत्पत्ति या स्वकार्य की अपेक्षा ! की कल्पना करे तो अनवस्था पाती मीमांसकद्वारा स्वतः प्रामाण्यवादका हो सो बात नहीं, आगे तीन चार
विस्तृत समर्थन
४१०-४२६ से अधिक ज्ञान विषयांतर संचा- गुणसे प्रामाण्य आता है ऐसा जैनका रादि होनेसे उत्पन्न ही नहीं
कहना प्रसिद्ध है क्योंकि गुणकी होते ?
ही सिद्धि नहीं है नित्य प्रात्मामें क्रमसे ज्ञानोत्पत्ति होना प्रत्यक्षके समान अनुमानसे भी गुणोंकी भी जमता नहीं
३८६ सिद्धि नहीं होती
४११ अदृष्ट आदिके कारण तीन चार से
इन्द्रियोंके नैर्मल्यको गुण कहना अधिक ज्ञान उत्पन्न नहीं होते हैं
गलत है ऐसा कहना भी युक्त नहीं ३६२
प्रामाण्य किसे कहना? ज्ञानको स्वपर प्रकाशक सिद्ध करनेके
स्वत: में जो असत है वह परके द्वारा लिये दिया गया दीपकका दृष्टांत
कराया जाना अशक्य है ४१६ साध्य विकल हो सो बात नहीं ३६३ पदार्थकी उत्पत्तिमें कारणकी अपेक्षा ज्ञानमें स्व और परको जाननेकी
हुअा करती है न कि स्वकार्य में योग्यता माने तो दो शक्तियां या
प्रवृत्ति
४१७ स्वभाव मानने होंगे और वे दोनों
प्रमाणकी ज्ञप्तिमें भी परकी अपेक्षा अभिन्न रहेंगी तो स्वभावोंका अनु
नहीं है
४१८ प्रवेश होगा इत्यादि दूषण जैन पर
संवादकज्ञानद्वारा प्रामाण्य मानना लागू नहीं होते ३६४ गलत है
४१६ ज्ञानांतर वैद्यज्ञानवादके खंडन का
अर्थक्रियाद्वारा प्रामाण्य पाता है ऐसा सारांश ३६७-४०० कहना ठीक नहीं
४२२
३८८
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