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________________ [ ३४ ] पृष्ठ | विषय कथन भी दोष भरा है बौद्धका कहना ठीक नहीं ४८१ तीन चार ज्ञानोंके प्रवृत्त होनेका मीमां प्रमेयद् वित्व प्रमाण वित्वका ज्ञापक सकमतानुसार विवेचन ४५-४६० कब बनता है ? ज्ञात होकर या प्रथम परिच्छेदका अंतिम मंगल १६२-४६३ अज्ञात होकर ? ज्ञात होकर कहो प्रामाण्यवादका सारांश ४६४-४६७ तो किस प्रमाणसे ज्ञात हुआ ? न प्रत्यक्षक प्रमाणवादका पूर्वपक्ष ४६८ प्रत्यक्षद्वारा ज्ञात हो सकता है न प्रत्यक्षोधेश [ द्वितीय परिच्छेदप्रारंभ ] अनुमान द्वारा ज्ञात हो सकता है बौद्ध मतानुसार प्रत्यक्ष तो स्वसू० १ का अर्थ - ४६९ लक्षणाकार है और अनुमान प्रमाणके भेदोंके चार्ट ( दो) ४७०-४७१ सामान्याकार है ४८३-४८५ सिर्फ एक प्रत्यक्षको प्रमाण माननेवाले प्रमेयद्वित्वसे प्रमाद्वित्व माननेवाले __ चार्वाकका कथन ४७२-४७३ बौद्धके खंडनका सारांश ४८६ जैन द्वारा प्रत्यक्षकप्रमाणवादका आगमविचार ४८७-४९४ निरसन ४७३.४७७ मीमांसकका आगमको पृथक् प्रमाण प्रत्यक्ष की तरह अनुमान भी प्रमाण है ४७३ माननेका समर्थन अनुमान प्रत्यक्ष पूर्वक न होकर तर्क शब्दको धर्मी और अर्थवानको साध्य पूर्वक होता है एवं शब्दको ही हेतु बनाकर प्रामाण्य अप्रामाण्यका निर्णय, पर शाब्दिक ज्ञानको ( आगमको ) प्राणियों की बुद्धि का अस्तित्व अनुमानमें अन्तर्भूत करना और परलोकादिका निषेध करने गलत है ४८६-४६. के लिये चार्वाकको भी अनुमानकी शब्द और अर्थका अविनाभाव नहीं जरूरत है ४७७ । हुआ करता न इन दोनोंका स्थान प्रमेयद्वित्वात् प्रमाण द्वित्ववादका अभेद ही है ४६२ पूर्वपक्ष ४७८.४७६ आगमप्रमाणका पृथकपना और उसका प्रमेयद्वित्वात् प्रमाणद्वित्व विचार सारांश ४९३-४९४ (बौद्ध) ४८०-४८६ उपमानविचार ४९५-४९९ सूत्र नं. २ का अर्थ ४०० मीमांसक द्वारा उपमा प्रमाणको पृथक प्रमेय ( पदार्थ ) दो प्रकारका होनेसे मानना ४६५-४६ प्रमाण दो प्रकारका है ऐसा अर्थापत्तिविचार ५००-५०३ ४८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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