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[ ३३ ] विषय पृष्ठ | विषय
पृष्ठ हम मीमांसक अप्रामाण्यको परसे पाना
लोकप्रसिद्ध बात है कि गुणवानपुरुषके __ मानते हैं
४२४ कारण आगम वचनमें प्रमाणता प्रमाणके स्वकार्य में भी परकी अपेक्षा नहीं ४२६ आती है जैनद्वारा मीमांसकके स्वतः प्रामाण्य- जैसे प्रामाण्यकी उत्पत्तिमें परकी अपेक्षा ___वादका विस्तृत निरसन ४२९-४६४ नहीं रहती ऐसा मीमांसकका मीमांसक इन्द्रियगुणोंका प्रभाव क्यों
कहना खंडित होता है वैसे ज्ञप्तिमें करते हैं ?
परकी अपेक्षा नहीं मानना भी नेत्रादि इन्द्रियको निर्मलता उसकी
खंडित होता है
४४३ उत्पत्तिके साथ रहती है अत: वह "प्रमाणमें प्रामाण्य है क्योंकि अर्थ उसका गुण न होकर स्वरूपमात्र
प्राकट्य होरहा" इत्यादिरूप है ऐसा मीमांसकने कहा था सो
मीमांसकका अनुमान प्रयोग गलत है यदि इस तरह कहेंगे तो
असत है
४४४.४४५ घटादिके रूप रसादिको भी गुण
अनभ्यस्तदशामें संवादकसे प्रामाण्य नहीं कह सकते
आता है ऐसी जैन मान्यतापर दोषोंका अभाव ही गुणोंका सद्भाव
चक्रक प्रादि दोष उपस्थित किये कहलाता है ४३२ वे असत हैं
४४६ अभाव भी कार्यका जनक होता है ४३५ अर्थक्रियाके अर्थी पुरुष पदार्थके गुणादिजैसे सदोषनेत्र अप्रामाण्यमें कारण है
में लक्ष्य न देकर जिससे अर्थक्रिया वैसे गुणवाननेत्र प्रामाण्य में कारण है ४३६ हो उस पदार्थमें लक्ष्य देते हैं । यदि प्रामाण्य स्वतः होता है तो अप्रा- अनभ्यस्त या संशयादि ज्ञानोंमें ही
माण्य भी स्वतः होना चाहिये ? ४३७ संवादककी अपेक्षा लेनी पड़ती है घटादिपदार्थ स्वकारणसे उत्पन्न होकर
न कि सर्वत्र
४५० स्वकार्य में स्वयं ही प्रवृत्त होते हैं
संवादकज्ञान पूर्वज्ञानके विषयको जानता वैसे ज्ञान भी है ऐसा मीमांसकका
है कि नहीं इत्यादि प्रश्न प्रयुक्त हैं ४५२ कहना ठीक नहीं
४३६ | बाधकाभावके निश्चयसे स्वतः प्रामाण्य मीमांसक प्रमाणका स्वकार्य किसे कहते
आता है ऐसा कहना भी गलत है हैं सो बतावे
४४० इस कथनमें भी अनेक प्रश्न होते हैं ४५५ अपौरुषेय होनेसे वेद स्वत: प्रमाणभूत
प्रमाण में प्रामाण्य तीन चार ज्ञान प्रवृत्त है ऐसा कहना ठीक नहीं ४४१ । होनेपर आता है ऐसा परवादीका
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