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नारी का मन : १३
को रसोईघर की व्यवस्था देता हूँ । उज्झिका को मैं घर की सफाई के लिए नियुक्त करता हूँ।"
मनुष्य की कीमत बुद्धि से आँकी जाती है । रोहिणी सबसे छोटी होती हुई भी अपने बुद्धिबल से सबके ऊपर हो गई ।
ज्ञाता० अ० ७ /
नारी को अभिलाषा !
स्वर्ग नगरी द्वारिका के राज प्रासादों में देवकी अपने विचारों में डूबी सोच रही थी । मानस मंथन चल रहा था। वह देख रही थी - सोच रही थी: "आज, आज तो महल सूना-सा लगता है । शान्ति में सुख है, कोलाहल नहीं ! द्वन्द नहीं ! पर बालक की किलकारी कहाँ है यहाँ ।" उसके चिन्तन ने मोड़ लिया :
"मैं कितनी पुण्य होना हूँ ? कितनी मन्द भाग्या हूँ । सातसात पुत्रों को जन्म देकर भी मैं एक को भी लाड़ प्यार नहीं कर सकी ! खिला-पिला नहीं सकी ! स्तनपान नहीं करा सकी ! गोद में लेकर दुलार नहीं कर सकी ! छह पुत्र सुलसा के यहाँ पाले गए, और कृष्ण को भी कंस से बचाने के लिए नन्द के यहाँ भेजना पड़ा । मैं कैसी माता हूँ ? छह दीक्षा ले गए, अब वह लौटने वाले नहीं, कृष्ण भी अब राजनीति में उलझा रहने से कभीकभी मेरे पास आता है । हाय नारी का भाग्य
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