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४२ : पीयूष घट
भगवान् ने कोमल वाणी में कहा :
"वत्स, तुम्हारे पास उतने रत्न नहीं हैं, उतनी निधि नहीं है, जितनी एक चक्रवर्ती के पास होनी चाहिए । इसलिए तुम चक्रवर्ती पद नहीं पा सकते।"
कामना का शिकार मानव अपनी शक्ति का सन्तुलन नहीं कर पाता। कोणिक के मानस में चक्रवर्ती बनने की भूख प्रबल थी। उसने कृत्रिम रत्न बना-बना कर निधि भर ली। विजेता बनने के लिए तमिस्रा गुहा में ज्यों ही प्रवेश करने लगा कि प्रतिपालक देव से निषेध की भाषा में कहा : __ "चक्रवर्ती बारह ही होते हैं और वे हो चुके हैं। आप चक्रवर्ती नहीं हैं ; अतः इस कन्दरा में प्रवेश करने का साहस न करें। यदि आप इस प्रकार की अनधिकृत चेष्टा करेंगे तो विनाश को प्राप्त करेंगे।"
"विनाश काले विपरीत बुद्धि," वाली बात हुई । तमिस्रा गुहा में कोणिक के अनाधिकृत प्रवेश करने पर प्रतिपालक देव ने प्रहार किया। कोणिक मरकर छठी नरक भूमि में उत्पन्न हुआ। चक्रवर्ती बनने की कामना पूरी न कर सका।
· दशवै० अ० १, नियुक्ति गा० ७:/
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