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भूले-भटके राही : १३६ रोहिणेय ने सोचा कि तीर्थङ्कर के वाक्य कभी मिथ्या नहीं होते। मालूम होता है कि मुझे फंसाने के लिए यह सब जाल रचा गया है । यह सारा खेल मुझे फंसाने के लिए ही है।
रोहिणय के मन में विचार आया -- “महावीर के एक वाक्य का कितना माहात्म्य है ! उनके वाक्य-स्मरण से ही आज मुझे जीवन-दान मिला, अन्यथा मेरे जीवन का कभी का अन्त हो गया होता। जब उनका एक-एक वाक्य इतना कीमती है, तो उनका समस्त उपदेश कितना कल्याणकारी होगा !" __ रोहिणेय के जीवन में क्रांति की लहर दौड़ गई. और उसने भगवान के चरणों में बैठकर उनका धर्म स्वीकार किया।
जैन कथाकोष
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