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फाल्गुरक्षित का दुराग्रह
विनीत शिष्य शंका होते ही गुरू से समाधान कर लेता है । गुरु से समाधान पाकर वह अपने आग्रह का परित्याग कर देता है ।
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दशपुर एक सुन्दर नगर था । वहाँ पर एक आचार्य पधारे । उनके तोन शिष्य थे - दुर्बलका पुष्पमित्र, फाल्गु-रक्षित ओर गोष्ठा- महिल । फाल्गु रक्षित तीनों में बड़ा था ।
परन्तु अयोग्य होने से आचार्य ने उसे आचार्य पद नहीं दिया । पुष्प मित्र की योग्यता से प्रसन्न होकर उसे आचार्य पद दे दिया ।
फाल्गु रक्षित, दोनों पर विद्वेष रखने लगा । मनुष्य अपनी अयोग्यता का विचार न करके दूसरों पर ईर्ष्या करने लगता है । फाल्गु रक्षित ने कहा - "जीव के कर्म चिपटे हुए हैं । यह सिद्धान्त गलत है । जैसे अंगरखी और शरीर तथा शरीर और कंचुकी अलग-अलग हैं, वैसे ही आत्मा और कर्म भी अलगअलग हैं ।"
उसका दूसरा विचार यह था कि जब तक मन स्थिर रहे, तभी तक व्रत एवं प्रत्याख्यान सच्चा है ।
गुरू के समझाने पर भी वह माना नहीं । अन्त में आचार्य ने उसे गच्छ से बाहर कर दिया ।
आग्रह - -शील मनुष्य
सकता ।
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कभी भी विनीत और योग्य नहीं बन -- उ० अ० ३, नि० गा० १७५/
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