Book Title: Piyush Ghat
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 191
________________ १८२ : पीयूष घट पर इस बात का ध्यान रखना, कि तुम्हारी दृष्टि केवल दोषदर्शन में ही स्थिर न हो जाए। टीकाकार अथवा आलोचक का कर्तव्य तो यह है कि वह प्रामाणिकता के साथ जहाँ दोषों को देखता है, वहाँ वस्तु के गुणों का प्रकाशन भी करता है। तभी क्सिी कृति की उपयोगिता या अनुपयोगिता सिद्ध हो सकती है। एक पक्षपातिनी दृष्टि वस्तु के स्वरूप को नहीं समझ सकती।" ब्रह्मा ने संसार-रचना का कार्य प्रारम्भ कर दिया। कार्य इतनी तेजी से चला कि टीकाकार को अवकाश ही न मिलता। जब तक वह एक वस्तु का परीक्षण कर पाता, पचासों दूसरी कृतियाँ उसके सम्मुख उपस्थित हो जातीं। वह तंग आ गया। पर, इन्कार भी कैसे करे ? अपनी नाक का सवाल आगे खडा था। अन्त में टोकाकार ने अपनो द्वष-बुद्धि का सहारा लेकर आलोचना के तीखे तीर छोड़ना प्रारम्भ किए, ताकि ब्रह्मा अपनी रचना बन्द कर दे। ___ "ब्रह्मा जरा विराम करो ! तुम्हारी कृतियों में उत्तरोत्तर दोष बढ़ते जा रहे हैं ! यह मुझसे सहन न हो सकेगा। तुम्हारी यह कोड़ी! इतनी हल्की-फुल्की है, कि मेरी फूक से ही गज भर दूर जाकर पड़ती है। तुम्हारा यह कुजर ! इतना भारी-भरकम है कि इसके मरने पर इसे श्मशान-भूमि तक ले जाने की ताकत किसी में नहीं । तुम्हारा यह उष्ट्र ! इसकी ग्रीवा इतनी लम्बी और इसका शरीर इतना ऊँचा है, कि यह तुम्हारी सृष्टि के सारे हरे-भरे वृक्षों को खाकर समाप्त कर देगा । तुम्हारा यह वानर ! इतना चंचल और इतना शैतान है, कि मत्त रावण की लंका में आग लगा कर उसे भस्म कर देगा । कलियुग में जब इसे वनों में फल-फूल न मिलेंगे, तब किसान की खेती को हानि पहुँचाएगा। तुम्हारा यह मानव ! इसकी छाती में एक खिड़की आवश्यक था, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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