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१४६ : पीयूष घट
शिष्यों को जगाकर कहा - "उठो, प्रतिक्रमण करो । प्रतिलेखना करो | ध्यान करो ।"
जब योग साधना पूरी हुई, और वह देव तदृश्य होकर इस प्रकार बोला
-
"मैं मरकर देव बन गया था । तुम्हारी साधना पूरी कराने को ही मुझे यहाँ पर आना पड़ा है । में असंयत और अविरत होकर भी तुम लोगों से वन्दन और सत्कार लेता रहा हूँ । इसके लिए मैं तुम सबसे क्षमा याचना करता हूँ । तुम सब मिलकर मुझ को क्षमा प्रदान करो ।"
इस घटना से शिष्यों के मन में संशय और शंका का वातावरण पैदा हो गया । वे एक-दूसरे से इस प्रकार परम्पर कहने लगे
"भगवान् तीर्थकर की आज्ञा है, कि असंयत को वन्दना नहीं करनी चाहिए। कौन संयत है ? कौन असंयत है ? इसका परिबोध होना कठिन है ।"
अतः सबने 'अव्यक्त-धर्म' को स्वीकार कर लिया । उन्हें सर्वत्र अन्धकार ही दीखने लगा । कहीं पर भी उनका विश्वास नहीं जमता था ।
एक बार वे सब शिष्य घूमते-घूमते राजगृह नगरी में जा पहुँचे । उस समय वहाँ पर सूर्यवंशी राजा बलभद्र राज्य करता था । वह भगवान् महावीर का परम् भक्त था । राजा को इन अव्यक्त निन्हवों के आने का पता लग गया ।
कभी-कभी जो बात उपदेश से समझ में नहीं आती, वह युक्ति से सहज में ही समझ में आ जाती है । राजा ने उनको
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