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भूले-भटके राही : १४७
सन्मार्ग पर लाने के अनेक सत्प्रयत्न किए। परन्तु वे समझ नहीं सके । आखिर, राजा ने अपने अनुचरों से श्रमणों को बुलवाया, और उसको अपमानित किया ।
श्रमण कहने लगे - "राजन्, तुम श्रावक होकर हम श्रमणों को अपमानित क्यों करते हो ? हम तो निरपराध हैं ।"
राजा ने अपनी बात का अवसर देखकर कहा - "कौन जानता है, कि आप श्रमण हैं, और मैं श्रावक हूँ ? आपके मत में तो सव कुछ अव्यक्त है । इस देह में कोन साधु है, कौन असाधु है ? इसका परिज्ञान आप में से किसी को नहीं है । फिर आप यह कैसे कहते हैं, कि हम निरपराध श्रमण हैं ।"
राजा के कथन को सुनकर आचार्य आषाढी के शिष्य अपनी भूल को पहचान गए । फिर अपने भ्रान्त विचारों की आलोचना करके, शुद्धि करके शुद्ध हो गए। फिर पहले जैसे ही एक-दूसरे को वन्दन भी करने लगे ।
अपने मन का संशय और शंका के दूर होते हो वे फिर से भगवान् के पवित्र एवं सत्य सिद्धान्तों पर दृढ़ता से श्रद्धा करने लगे ।
- उ० अ० ३, नि० गा० १६६
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