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भूले-भटके राही : १४१ __ एक बार राजमार्ग के पास के मैदान में बालक क्रीडा कर रहे थे । पन्थक भी देवदत्त को लेकर वहाँ पर पहुँच गया । देवदत्त को एक ओर बैठाकर पन्थक खेल में बेभान था। अवसर पाकर विजय चोर देवदत्त को लेकर भाग गया, और उसके बहुमूल्य
आभूषण उतार कर, उसको मारकर कूप में डाल दिया। पन्थक मुह दिखाने लायक नहीं रहा । इस दारुण घटना से धन्य और भद्रा के दुःख का तो कहना ही क्या ?
पुलिस ने दौड़-धूप करके विजय चोर को पकड़ लिया, और देवदत्त का शव भी कूप में मिल गया। विजय चोर को इस कर कर्म के कारण जेल में बन्द कर दिया। परन्तु भद्रा को क्या पूत्र के अभाव में चैन थी? इकलौते बेटा का अभाव माता को बहुत दिनों तक सालता रहता है। धीरे-धीरे धन्य और भद्रा पुत्र-शोक को भूले ही थे, कि किसी राज-अपराध में धन्य सार्थवाह भी पकड़ा गया, और बिजय चोर के साथ ही उसे भी जेल में बन्द कर दिया गया । सार्थवाह को उसके घर से भोजन आता था । विजय चोर ने कहा- “मैं भूखा हूँ ! मुझे भी थोड़ा भोजन दे दिया करो ।' सेठ ने कहा-“तू मेरा पुत्र घातक है । मैं तुझे भोजन नहीं दे सकता।"
सार्थवाह को शौच-लघु-शंका हुयी, तो उसने विजय चोर से साथ में चलने को कहा, क्योंकि वे दोनों एक ही बेड़ी से बंधे हुए थे। विजय चोर ने अवसर से लाभ उठाते हुए कहा-"अपने भोजन में से मुझे भी देने की प्रतिज्ञा करो, तो साथ चल।' धन्य जो विजय की बात स्वीकार करनी पड़ी। वह अपने भोजन में से कुछ भाग विजय चोर को भी देने लगा। __ जेल से मुक्त होकर सार्थवाह घर आया । सब ने हर्ष प्रकट किया। परन्तु भद्रा ने स्वागत इसलिए नहीं किया, कि उन्होंने
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