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संन्यासी का द्वन्द : १०६
मस्ती में मस्त था !! देह और आत्मा के भेद उसके लिए जाने पहचाने हो चुके थे। आत्मा की विभाव परिणति से वह अमर साधक स्वभाव परिणति में रम गया था। सुख और दुःख की सोमाओं को पार करके वह शाश्वत आनन्द की भूमि पर पहँचा था। जो पाना था, वह पा चुका था--आज ही ! आज का साधक, आज ही अजर, अमर और शाश्वत बन गया।
गज सुकुमाल और सोमिल आज नहीं हैं। परन्तु दोनों का जोवन आज भो हमें सोचने को, विचारने को बाध्य करता है, कि क्रोध पर क्षमा की यह महान् विजय है ! रोष पर तोष की शानदार जीत ! दानवता पर मानवता का अमर जयघोष।
उसने सोचा होगा : "यह सब मेरे कृत कर्म का ही फल है। मैं स्वयं करता हूँ। मैं स्वयं भोक्ता हूँ। सोमिल से कभी कर्ज लिया था। आज ब्याज सहित चुका कर हल्का हो रहा हूँ। कौन किसको दुःख देता है । यह सब तो अपने हाथों का ही खेल है ! जिन्दगी की जिस बुलन्दी से गजसुकुमाल बोल रहा था, वहाँ सामान्य मनुष्य को पहुँच नहीं, कदापि नहीं है । ऐसे जीवन धन्यधन्य हैं।
नेमिप्रभु के चरणों में बैठा कृष्ण पूछ रहा था : "भंते, मेरा भ्राता गजसुकुमाल कहाँ है ? वन्दन करने की भावना है।" ___ "वह कृत-कृत्य हो गया है, कृष्ण !" भगवान् ने गम्भीर स्वर
में कहा।
:"भंते, क्या एक ही दिवस में उस बाल साधक ने साधना के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लिया ?" कृष्ण ने कातर स्वर में प्रतिप्रश्न किया।
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