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कपिल का अन्तर्द्वन्द
तृष्णा को जिसने जीत लिया. उसने सम्पूर्ण विश्व को जीत लिया । तृष्णा और वासना पर विजय पाने वाला कभी क्लेश नहीं पाता और न विद्वान कभी निरादर !
कौशम्बी नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था । काश्यप ब्राह्मण उसका पुरोहित था, वह सर्व विद्याओं में पारंगत था, राजा उसका सम्मान करता था । पुरोहित की पत्नी यशा थी और उसके पुत्र का नाम था कपिल । कपिल अभी शिशु ही था कि काश्यप का सहसा निधन हो गया | पति के मरने का यशा को अपार दुःख था । कपिल के पिता का पुरोहित पद एक दूसरे ब्राह्मण को मिला । जब ब्राह्मण अश्व पर बैठकर यशा के घर के आगे से निकलता, तो यशा को बड़ी मनो व्यथा होती । नारी का मन बीते दिनों को याद करके रोने लगता है ।
माता के आँसू, पुत्र के जीवन को कभी-कभी मोड़ देते हैं अपनी माता के प्रेरणा से कपिल श्रोवस्ती नगर में रहने वाले अपने पिता के मित्र, उपाध्याय इन्द्रदत्त के पास अध्ययन को गया । मित्र के पुत्र और मेधावी कपिल ने अध्यापक तथा छात्र सबको अपने विनय और स्नेह गुण में बाँध लिया । इन्द्रदत्त ने शालिभद्र सेठ के घर पर कपिल के भोजन की व्यवस्था की ।
यौवन की उर्वर भूमि पर विकारों के अंकुर फटते देर नहीं लगती । सेठ की दासी और कपिल एक-दूसरे के स्नेह में बँध
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