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११२ : पीयूष घट
ब्राह्मणों ने श्रमण का उपहास किया। जयघोष ने विजयघोष से प्रश्न किए। परन्तु वह उत्तर नहीं दे सका। दोनों भाई दो सिरों पर खड़े थे। एक त्याग के शिखर पर और दूसरा भोग को विषम भूमि पर !
जयघोष ने विजयघोष को सच्चे यज्ञ का स्वरूप बताते हए कहा:
"इन्द्रियों का निग्रह और मनोवृत्तियों का निरोध ही सच्चा यज्ञ है। शेष यज्ञों से कल्याण और सुख नहीं मिलता है।
"सच्चा ब्राह्मण वह है, जो सत्य बोलता है, सबसे प्रेम करता है, चोरी नहीं करता, परिग्रह नहीं रखता और वासना पर विजय पाता है।
"जाति से कोई भी ऊँचा-नीचा नहीं होता। जाति जन्म से नहीं, कर्म से बनती है।"
जयघोष की दिव्य-वाणी का प्रभाव विजयघोष पर पड़ा। वह भी श्रमण बन गया। त्याग, तप और साधना में लीन रह कर दोनों ने अपना आत्म-कल्याण कर लिया, और अन्त में सिद्ध और बुद्ध मुक्त बने।
उ० अ० २५/
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