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जय घोष, विजय घोष!
वाराणसी नगरी में काश्यप गोत्र वाले दो सहोदर भाई थे-जयघोष और विजय घोष ! दोनों एक साथ जन्मे थे, एक साथ पालित एवं पोषित हुए थे। दोनों में गहरा स्नेह था। दोनों वेद विद्या में पारंगत थे। यजन-याजन और अध्ययनअध्यापन में प्रवीण थे ! ___ "एक बार जयघोष गंगा-स्नान करने को घर से निकला। मार्ग में चला जा रहा था, कि उसने देखा :
एक साँप ने मेंढक पकड़ रखा है, और साँप को मयूर पकड़ने के प्रयत्न में है । जीवन लीला के इस करुण दृश्य ने जयघोष को अन्तर्मुखी बना दिया, वह सोचने लगा : _ "हम अपने से दुर्बल जीवन के साथ खिलवाड़ करते हैं। परन्तु काल का मजबूत पंजा हमें भी पकड़ने को बढ़ा चला आ रहा है।" जयघोष के मन में विकृत जीवन को संस्कृत जीवन बनाने की भावना जाग्रत हो गई ! ____ जयघोष ब्राह्मण से श्रमण बन गया। साधना से अपनी आत्मा को भावित करने लगा। वह घोर तप करने लगा-वह तपस्वी बन गया।
इधर विजयघोष वाराणसी में यज्ञ करा रहा था, उधर जयघोष मास खमण के पारने के निमित्त नगरी में आया। घूमता-घूमता विजयघोष की यज्ञशाला में जा पहुँचा। परन्तु
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