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११४ : पीयूष घट
करते थे। भद्रा के गृहस्थ जीवन का पोत, संसार-सागर की ऊपरी सतह पर आनन्द और मंगल से बहा जा रहा था। धन्यकुमार तो मानव-भवसुलभ भोगों में इतना डूबा था कि उसे सूर्य के उदय-अस्त का भी पता नहीं था।
एक बार महाश्रमण भगवान् महावार काकन्दो नगरी पधारे। धन्यकुमार ने दर्शन एवं वन्दन किया और देशना भी सुनी । वोतराग की वाणी में अद्भुत प्रभाव होता है। पहली बार सुनी देशना से हो धन्यकुमार में हृदय को अनुरक्ति विरक्ति में परिणत हो गई। जो संसार अभी तक प्रिय और मधुर था, वह अब अप्रिय और कटु हो गया ! भोग को तन्द्रा से जागकर धन्यकुमार योग के पथ पर चलने को कटिबद्ध हो गया। अपार धन-वैभव का प्रलोभन, बत्तीस पत्नियों का प्रणय-वन्धन और माता की अमिट ममता भी धन्यकुमार को उसके संकल्प से हटा नहीं सकी। ___ धन्यकुमार जिस दिन श्रमण बना, उसी दिन से उसने बेले. बेले पारणा करने का अभिग्रह स्वीकार किया। पारणा में भी सरस आहार नहीं, नौरस आहार लेने की कठोर प्रतिज्ञा को। जिस भोजन को एक कंगला भिखारी भी लेने में संकोच करे, ऐसे तुच्छ भोजन को धन्य अणगार ग्रहण करता था। कभी आहार मिला तो पानी नहीं, और पानी मिला तो भोजन नहीं। फिर भी धन्य अणगार अपनो मस्ती में मस्त! अपनी साधना में शान्त ! अपनी तपस्या में स्थिर ! अपने कर्म में सदा सजग ! आत्म-साधना में देह सहयोगी रह सके, अनुकूल रह सके, इसीलिए उसे भोजन देना, धन्य अणगार ने तय किया था। सर्प जैसे बिना रगड़ के बिल में जाता है, वैसे ही धन्य अणगार बिना
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