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११८ : पीयूष घट उसे ये रत्न राशियां मैं दूंगा।" रत्न-राशि लेने को सभी तैयार थे, पर इनका त्याग करने को कोई भी तैयार नहीं था। .. अभय कुमार की बात सुनकर लोग एक-दूसरे का मुह ताकने लगे, और एक-दूसरे से कहने लगे : ___"इन तीनों वस्तुओं के बिना जीवन में रत्न राशि का उपयोग ही क्या ? मूल्य ही क्या? जल तो जीवन ही है, अग्नि के बिना भोजन कसे बनेगा ! और नारी तो सुखों की खान ही है। नारी के बिना पुरुष का जीवन निष्फल है। गृहिणी से ही तो घर की शोभा है ?"
तब अभय कुमार ने गम्भीर स्वर में कहा : “तुममें से एक भी ऐसा वीर नहीं है, जो इन तीनों वस्तुओं का परित्याग करके रत्नराशि ले सके ? वस्तु छोटो हो या मोटो, उस पर से ममत्व भाव हटाना सरल बात नहीं है। त्याग में, त्याज्य वस्तु के नहत्व का प्राधान्य नहीं, भावना का ही एक मात्र महत्व है।"
अभय कुमार ने अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए कहा :
"तुम लोग जिसे गरीब, दरिद्र और कंगाल समझते हो, और जिसके सम्बन्ध में कहते हो, इसने कोन-सा त्याग किया है? इसके पास त्यागने को था ही क्या? यह तुम्हारी भ्रान्त धारणा है। धन, जन, और परिजन का त्याग हो त्याग नहीं है, बल्कि अपने मनोविकारों का त्याग ही एक मात्र सच्चा त्याग है । तुम में से कौन यह त्यागने को तैयार है ?" __नगर के लोग अपनी भूल को समझ गए और उन्होंने उस दिन से कठियारा भिक्षु का तिरस्कार करना छोड़ दिया। त्याग के वास्तविक अर्थ को जनता ने समझ लिया था।
-दशवे अ० २, गा० ३ टीका
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