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१२० : पीयूष घट
"ढंढ मुनि ने एक घोर अभिग्रह कर लिया है कि पर-निमित्त से होने वाले लाभ को मैं ग्रहण नहीं करूँगा ।" ढंढ मुनि के उग्र अभिग्रह को सुनकर कृष्ण के मन में दर्शन और वन्दन की भावना जाग उठी, बोला : भंते, ढंढ मुनि कहाँ पर हैं ?"
भगवान ने कहा : "यहां से नगरी को जाते समय जब तुम नगर में प्रवेश करोगे, तब ढंढ मुनि को देख सकोगे ।"
कृष्ण अपने गज पर बैठे जा रहे थे, कि नगरी में प्रवेश करते ही उन्हें ढंढ मुनि के दर्शन हो गए । हाथी से नीचे उतरकर कृष्ण ने ढंढ मुनि को वन्दन किया, सुख शान्ति पूछी । त्याग-भूमि पर पहुँच कर पुत्र, पिता से भी महान् हो सकता है ।
एक सभ्य सेठ ने कृष्ण को वन्दन करते देखा, मन में सोचा "यह मुनि कोई असाधारण है, जिसको हमारी नगरी के सम्राट् भी वन्दन करते हैं ।"
मुनि उसी सेठ के घर भिक्षा को
कृष्ण आगे बढ़ गए । ढंढ गए । सेठ ने श्रद्धा और भक्ति साथ मोदकों का दान दिया । शान्त भाव से ढंढ मुनि भगवान् के चरणों में जा पहुँचे । विनीत भाव से पूछा :
"भंते, क्या मेरा अन्तराय क्षीण हो गया है ? क्या मेरी यह भिक्षा अपनी लब्धि की है ?"
भगवान् ने कहा : "नहीं वत्स, अभी अन्तराय क्षीण नहीं हुआ। तुम्हारी भिक्षा, पर-निमित्त की है । स्व-निमित्त की नहीं है । तुम्हें यह सब कृष्ण वासुदेव के व्यक्तित्व से मिला है । ढंढ -मुनि को मन में जरा भी ग्लानि नहीं हुई । हाथ से जाते लाभ
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