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१०८ : पीयूष घट
सन्ध्या की गुलाबी आभा, चतुदिक में परिव्याप्त थी, दिनकर अदृश्य हो गया था। घने मेघों के आंचल में गायें रंभा रही थीं। वे दौड़ती हुई आगे-पीछे मुड़-मुड़कर अपने प्यारे बछडों का प्यारा मुखड़ा देखने को विकल थीं। उनका ममत्व स्तनों में बोझ बन बाहर फूट पड़ना चाहता था । पक्षी आकाश से उतर. उतर कर अपने नीड में लौट रहे थे। बच्चे नीड़ से आहर आआकर अपनी माँ की प्रतिक्षा कर रहे थे । वे माँ की ममता पाने को व्याकुल थे।
सोमिल ब्राह्मण ने, जो वन से नगर की ओर जा रहा था। उसने देखा कि मेरा जामाता होने वाला गजसूकुमाल आज मुण्ड होकर तपस्वी बन गया है, श्रमण बन गया है। मेरी कुसुम कोमल बेटी के जीवन के साथ यह खिलवाड़ !
क्रोध मनुष्य को अन्धा बना देता है। सोमिल के मन में क्रोध का तूफान उठा। वह भूल गया, कृष्ण की राजसत्ता को । निर्जन स्थान ने उसे वैर का बदला लेने का अवसर दिया। -पास की तलैया से गीली मिट्टी लेकर ध्यान मुद्रा में खड़े तरुण श्रमण गजसकूमाल के सिर पर पाल बांधी। जलती चिता से सोमिल ने उसमें धधकते अंगारे भर दिए। इस क र कर्म को करके वह वहाँ खड़ा नहीं रह सका। मनुष्य के मन का भय ही मनुष्य को खा जाता है।
तरुण तपस्वी का मस्तक जल रहा था। चमड़ी, मज्जा और मांस सभी जल रहे थे। महाभयंकर, महादारुण वेदना हो रही थी। फिर भी वह तरुण योगी अपनो ध्यान मुद्रा से डिगा नहीं। मन के किसी भी भाग में न कहीं पर बैर न कहीं पर विरोध और न कहीं पर प्रतिशोध ! वह मस्त साधक अपनो
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