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८६ : पीयूष घट
"जो जन्मा है, वह अवश्य ही मरेगा । पर कब और कैसे जीवन का पर्दा गिरता है, यह मैं नहीं जानता ।"
"जीव, कर्म के वश वर्ति हो संसार में परिभ्रमण करता है, यह मैं जान चुका हूँ और इस पर विश्वास भी कर चुका हूँ ।"
माता-पिता की प्रसन्नता के लिए, मनस्तोष के लिए, अतिमुक्त प्रथम राज्य सिंहासन पर आसीन हुआ । पर अन्तर में लगन थी अतः वह भगवान् के पावन शासन में दीक्षित हो गया ।
अब अतिमुक्त साधक बन गया था। चलता था । विवेक को साथ रखता था और वाणी में गम्भीरता आना सहज था । स्वभाव कभी-कभी दबाने पर भी उभर उभर आता था ।
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संभल - संभल कर वह
विचार में गहनता परन्तु बाल-सुलभ
आकाश, मेघाच्छन्न था । वर्षा होकर ही चुकी थी । स्थविरों के साथ अतिमुक्त श्रमण भी विहार भूमि को निकला । स्थविर इधर-उधर बिखर गए । अतिमुक्त ने देखा कल-कल निनाद करता वर्षा का जल तेज गति से बहा चला जा रहा है । बचपन के संस्कार उभर आए। मिट्टी से पाल बाँधकर जल के प्रवाह को रोका, और अपना पात्र उसमें छोड़ दिया । आनन्द विभोर होकर वह बोल उठा :
"तिर मेरी नैया तिर ।" शीतल बयार चल रही थी, अतिमुक्त की नौका थिरक रही थी । प्रकृति हँस रही थी । परन्तु स्थविर यह कैसे सहन कर सकते थे ? अन्तर का रोष उसके मुख पर स्पष्ट प्रतिभासित हो रहा था । अतिमुक्त अपने जीवन में आज प्रथम बार डरा था, कंपा था, भयभीत हुआ था । "अभय
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