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८४ : पीयूष घट की चिन्ता । अतियुक्त मतवाला होकर, अपनी मस्ती में झूम रहा है ! कूद रहा है !! खेल रहा है !!!
गणधर गौतम भिक्षा के लिए पोलासपुर में आए हैं। एक घर से निकले, दूसरे में प्रवेश किया, फिर तीसरे में। बच्चों के खेल के मैदान के पास होकर वे धीर, गम्भीर और मन्द गति से बढ़े चले जा रहे थे। शान्त, दान्त और मन्द मुस्कान से भरा मुख, विशाल भाल, उन्नत मस्तक, चमकते नेत्र, अभय की मंजुल मूर्ति ! अतिमुक्त इस भव्य व्यक्तित्व से प्रभावित होकर बोला :
"भंते, आपका परिचय ?" अतिमुक्त ने आगे बढ़कर पूछा।
"मैं एक भिक्षु हूँ। यही मेरा परिचय है।" गौतम ने मुस्करा कर जवाब दिया।
"तो, आप घरों में क्यों घूमते हैं ?"
जिज्ञासा भरी दृष्टि से अतिमुक्त गणधर गौतम के मंगलमय मुख की ओर अपलक देख रहा था।
"भिक्षा के लिए, वत्स !" गोतम ने कहा।
"अच्छा, भोजन के लिए ! पधारिए मेरे घर, मेरी माता आपको प्रभूत भोजन दें देगी।" अतिमुक्त के अन्तर जीवन में जो ज्योति जगमगा रही थी, उसी ने भाषा का रूप लेकर यह बात कही थी।
अतिमुक्त निर्भय था । अपने नन्हें-से हाथ से उसने गणधर गौतम की अंगुली पकड़ ली थी, और अपने साथ अपने घर ले आया। माता देखकर हैरान ! पिता देखकर आश्चर्य मैं !! पुत्र के चातुर्य पर माता अन्दर-ही-अन्दर विहँस रही थी। माता से अतिमुक्त ने कहा : 'माता, इन्हें भिक्षा दीजिए, खूब दीजिए।
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