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क्षमापना का आदर्श!
गणधर गौतम और श्रावक आनन्द दोनों भगवान् के संघ को शोभा थे। दोनों की जीवन-भूमि पर धर्म साकार होकर उतरा था। एक में श्रमण-धर्म का चरम विकास था, दूसरे में श्रावक धर्म का अनुपम निवास, दोनों ही भगवान को कृपा के पात्र थे, प्रियतर थे । गुरु को योग्य शिष्य के जीवन पर पूर्ण विश्वास और सन्तोष था। सन्देह एवं अविश्वास की एक भी काली रेखा नहीं थी !
बाणिज्यग्राम नगर के बाहर पौषधशाला में धर्म साधना करते-करते आनन्द को अवधि-ज्ञान प्रकट हो गया। गम्भीर और गहरा व्यक्ति सम्पत्ति पाकर बाहर छलकता नहीं। पूर्ण कुम्भ कभी छलकता नहीं और अधूरा कभी बोले बिना रह ही नहीं सकता ! आनन्द ने अपनी इस ऋद्धि का, अपनी इस सिद्धि का किसी के सामने बखान नहीं किया। योग्य व्यक्ति का संयोग मिलने पर अपनी ऋद्धि-सिद्ध को प्रकट करने में कोई दोष भी नहीं होता, बल्कि प्रकट करने में कभी-कभी लाभ भी हो जाता है। ___ इन्द्रभूति गणधर गौतम बेला-बेला पारणा करते थे। ज्ञान के साथ तप का योग जुड़ जाने पर जीवन तेजोमय हो जाता है। बिना तप का ज्ञान फीका-फीका सा रहता है। उसमें जीवन ज्योति नहीं जगती।
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