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संन्यासी का द्वन्द : १०५ गोपाल अपने अज्ञान मूलक अपराध की क्षमा माँग कर चला गया। पर इन्द्र ने श्रमण महावीर से कहा : "भंते ! आपका साधना काल लम्बा है। इस प्रकार के उपसर्ग, परीषह और संकट, आगे और भी आ सकते हैं। अतः आपकी परम पवित्र सेवा में ही सतत रहने को कामना करता हूँ। मैं उपसग से आपकी सुरक्षा करूंगा। ___ गोपाल का विरोध और इन्द्र का अनुरोध महावीर ने सुना तो अवश्य, पर अभी तक वे अपने समाधि भाव में स्थिर थे। समाधि खोलकर बोले : ___"इन्द्र ! आज तक के आत्म साधकों के जीवन के इतिहास में न कभी यह हुआ, न कभी यह होगा और न कभी यह हो सकता है-उपसर्गों से कौन बच सकता है ? मुक्ति या, मोक्ष अथवा केवल ज्ञान क्या, दूसरे के बल पर, दूसरे के श्रम पर और दूसरे की सहायता पर कभी प्राप्त किया जा सकता है ? __"आत्म साधक, अपने बल पर, अपने श्रम और अपनी शक्ति पर ही जीवित रहा है और रहेगा। वह अपनी मस्त जिन्दगी का बादशाह होता है, भिखारी नहीं ! वह स्वयं अपना रक्षक है वह किसी का संरक्षित होकर नहीं रह सकता । साधक का कैवल्य मोक्ष साधक के आत्म-बल में से ही प्रसूत होता है !" __ श्रमण भगवान महावीर के सम्मुख जीवन के दो चित्र थेगोपाल और इन्द्र । एक विरोधी, दूसरा सेवक ! एक त्रासक, दूसरा भक्त !! परन्तु भगवान् दोनों को समत्व दृष्टि से देख रहे थे। न गोपाल के अकृत्य के प्रति घणा और न इन्द्र की भक्ति के प्रति राग ! यह है-समत्व योग की जनोत्थान मूलक साधना !!
-ज्ञाता०६/.
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