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संन्यासी का द्वन्द : ८७
के पास आ कर भी यह भय क्यों?" यह प्रश्न अन्दर-ही-अन्दर अतिमुक्त को कचोट रहा था।
स्थविरों के रोष का कारण वह अपने आप में खोज रहा था। जिसने खोजा, वह पा गया। अतिमुक्त अपनी भूल पर पश्चात्ताप करने लगा अपनी मर्यादा का भान उसे हो गया। लघु श्रमण अतिमुक्त के हृदयाकाश में एक गम्भीर गर्जन के साथ विवेक की बिजली कोंध गई। आलोचना के जल से वह पावन बन चुका था।
भगवान् की परिसेवा में पहुँचकर स्थविरों ने सविनय प्रश्न किया
"भंते, आपका यह लघु साधक अतिमुक्त कितने भवों में मुक्त होगा ?"
"इसी भव में यह मुक्त होगा।" भगवान् शान्त स्वर में कहते जा रहे थे :
"स्थविरो! तुम इसकी हीलना, निन्दना और गर्हणा मत करो। बने जहाँ तक इसकी सेवा करो, भक्ति करो। यह स्वच्छ है, अमल, है, पावन है, विमल है। इस पर क्रोध मत करो, रोष मत करो !"
स्थविर, अपनी-अपनी स्वाध्याय भूमि को लौट गए। भगवान् की वाणी पर उन्हें विश्वास था। अतिमुक्त के उज्ज्वल भविष्य के प्रति उनका आदर बढ़ने लगा था। चर्म देह की सेवा से कितना महान् लाभ है । स्थविर अब कहते थे :
"अतिमुक्त देह से लघु है, पर विचारों से यह महान् है। यह सागर से भी गम्भीर है और हिमगिरि से भी ऊँचा है।
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